सम्मेद शिखर चालीसा

अरिहंत सिद्धाचार्य को, नमन करुँ शतबार,

सर्व साधु और सरस्वती को, देवे सौख्य अपार।

सम्मेदशिखर की भूमि का, हृदय में धरुं ध्यान,

दर्शन वंदन भक्ति कर, शत्शत् करुं प्रणाम।।


जय जय सम्मेद शिखरवर तीर्थों में यह मुख्य गिरिवर।

इसका कण-कण भी पावन है होवे सौ सौ बार नमन है।।


भूले भटके कर्म के मारे, आये शरणा जीव ये सारे।

है अंचित्य महिमा गुणगान, शुद्ध भाव शाश्वत सुख खान।।


है इतिहास अनादि अनंत, आते ही मिल जाता पंथ।

न कोई मिटाने वाला, तोड़े कर्मों के जंजाला।।


भूत भविष्यत काल हो भावी, प्रलय काल न होवे हावी।

इन्द्र देवगण रक्षा करते, भक्त की आशा पूरी करते।।


दूर-दूर से यात्री आते दर्शन कर तन-मन हर्षाते।

टोंक टोंक पर दर्शन पावें, रोम-रोम पुलकित हो जावे।।


एक-एक टोंको का दर्शन, फल करोड़ उपवास का अर्जन।

होय असाध्य असम्भव काम, किया स्मरण लिया जो नाम।।


दर्शन कर संकट को खोवे, चमत्कार उसके संग होवे।

आगम शास्त्र पुराण भी ध्यावें, महिमा इसकी इन्द्र भी गावें।।


चौबीसों तीर्थंकर धाम, यही से पावे मोक्ष निधान।

जैन अजैन सभी जन आते, पर्वत ऊपर दर्शन को पाते।।


भाव सहित वंदन जो करते, नर तिर्यंच योनि न धरते।।

नयन बंद कर ध्यान लगाओं, श्री सम्मेद शिखर के दर्शन पाओं।


चौपड़ा कुंड में पार्श्व का धाम, वंदन कर करते विश्राम।

दर्शन भव्य जीव ही करते, कर्म धार कर मुक्ति वरते।।


व्यसन बुराई दर्श से हटे, नाता न तेरे दर से टूटे।

मानव को शक्ति दे देता, संकट क्षण भर में हर लेता।।


हरे भरे वृक्षों की डाली, झूम रही होकर मतवाली।

करुं अर्ज मैं कर को जोड़, तू हैं चंदा मैं हूं चकोर।।


मधुबन मंदिर शिखर सुहाना, दर्शन प्रथम यहां का पाना।

गुरुवर सुमति सागर आये, त्यागी व्रती आश्रम को पाये।।


पीत वर्ण पारस की प्रतिमा, आकर निश्चित दर्शन करना।।

आत्म ज्योति है सिद्ध स्वरुप, सिद्धालय का बनना भूप।।


आत्म ज्ञान आकर प्रकटाना, शुद्ध ज्ञान की ज्योति जलाना।।

सिद्धों की नित करोगे जाप, होंगे दूर भवों के पाप।


पारस गुफा में ध्यान लगाओं, आत्म शांति को निश्चित पावो।

पाप छोड़ तुम पुण्य को भर दो, आशा मेरी पूरी कर दो।।


शब्द अर्थ भावों से वंदन, दर्श करुं हो जाऊं चंदन।

अज्ञानी है ज्ञानी कर दो, खाली जोली तुम भर दो।।


जग के दुःखों ने आ घेरा, छूटे जन्म मरण का फेरा।

बूढ़ा बच्चा और जवान करते हैं तेरा गुण गान।।


डोल रही भवसागर नैया, प्रभुवर तुम्हीं हो खिवैया।

जग में घूम-घूम कर हारे, अब वरदान मुझे दो सारे।।


चरणों में वंदन को आऊं, बार-बार दर्शन को पाऊं।

स्वस्ति चाहे शरण में रहना, और नहीं कुछ तुमसे कहना।।


चालीसा चालीस दिन, पाठ करे जो कोए,

सुख समृद्धि आवें तुरंत, दव दरिद्र सब खोए।

तीर्थंकर श्री बीस जिन, गये जहां निर्वाण,

उनकी पावन माटी को, शत्-शत् करुं प्रणाम।।