पंच भेद जाके प्रकट, ज्ञेय-प्रकाशन-भान ।
मोह - तपन - हर चंद्रमा सोई सम्यक् ज्ञान ।।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञान! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
नीर सुगंध अपार, तृषा हरे मल छय करे ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठभेद पूजौं सदा ।।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।।१।।
जल केशर घनसार, ताप हरे शीतल करे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यरग्ज्ञानाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।।२।।
अछत अनूप निहार, दािद नाशे सुख भरे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।।३।।
पुहुप सुवास उदार, खेद हरे शुचि करे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।।४।।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरे थिरता करे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।५।।
दीप-ज्योति तम-हार, घट-पट परकाशे महा । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।।६।।
धूप घ्रान-सुखकर रोग विघन जड़ता हरे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।।७।।
श्रीफल आदि विथार निहचे सुर-शिव फल करे । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीति स्वाहा ।।८।।
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यग्ज्ञान
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।९।।
।।जयमाला।।
आप आप जाने नियत, ग्रन्थ पठन व्यौहार ।
संशय विभ्रम मोह बिन, अष्ट अंग गुनकार ।
सम्यक् ज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया ।
अक्षर शुद्ध अर्थ पहिचानो, अक्षर अरथ उभय संग जानो ।
जानो सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये ।
तप रीति गहि बहु मौन देके, विनय गुण चित लाइये ।
ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पण देखना ।
इस ज्ञान ही सों भरत सीझे, और सब पटपेखना ।
ॐ ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)