वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये।।
अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरन जिनके सुर नये ।।
नव हाथ उन्नत तन विराजै, उरग लच्छन पद लसैं ।
थापूं तुम्हें जिन आय तिष्ठो करम मेरे सब नसैं ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
क्षीरसोम के समान अम्बुसार लाइये ।
हेमपात्र धारि के सु आपको चढ़ाइये ।।
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करुं सदा ।
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा ।।१।।
चंदनादि केशरादि स्वच्छ गंध लीजिये ।
आप चरण चर्च मोह-ताप को हनीजिये ।।
पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करुं सदा ।
दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय भवताप विनाशनाय चंदनं नि.स्वाहा।।२।।
फेन, चंद्र के समान अक्षतान् लाइके ।
चर्न के समीप सार पुंज को रचाइके ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा।।३।।
केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइके ।
धार चर्न के समीप काम को नशाइके ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा ।।४।।
घेवरादि बावरादि मिष्ट सद्य में सने ।
आप चर्न चर्चतें क्षुधादि रोग को हने ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशाय नैवेद्यं नि.स्वाहा ।।५।।
लाय रत्न दीप को सनेह पूर के भरुं ।
वातिका कपूर बारि मोह ध्वांत को हरुं ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा ।।६।।
धूप गंध लेय के सुअग्निसंग जारिये ।
तास धूप के सुसंग अष्टकर्म बारिये ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं नि.स्वाहा ।।७।।
खारिकादि चिरभटादि रत्न थाल में भरुं ।
हर्ष धारिके जजूं सुमोक्ष सौख्य को वरुं ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि.स्वाहा ।।८।।
नीर गंध अक्षतान पुष्प चारु लीजिये ।
दीप धूप श्रीफलादि अर्घ तैं जजीजिये ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथ जिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।९।।
पंचकल्याणक अर्घ्यावली
शुभप्राणत स्वर्ग विहाये, वामा माता उर आये ।
वैशाख तनी दुतकारी, हम पूजें विघ्न निनारी ।।
ॐ ह्रीं वैशाखकृष्णाद्वितीयायां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेंद्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१।।
जनमे त्रिभुवन सुखदाता, एकादशि पौष विख्याता ।
श्यामा तन अद्भुत राजै, रवि कोटिक तेज सु लाजै ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यांजन्ममंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वअनिस्वाहा ।।२।।
कलि पौष एकादशि आई, तब बारह भावन भाई ।
अपने कर लौंच सु कीना, हम पूजैं चरन जजीना ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णा एकादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वअनिस्वाहा ।।३।।
कलि चैत चतुर्थी आई, प्रभु केवल ज्ञान उपाई ।
तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवन को सुख दीना ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाचतुर्थ्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीपार्श्वअनिस्वाहा ।।४।।
सित सातैं सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई ।
सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजैं मोक्ष कल्याना ।।
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लासप्तम्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीपार्श्वअनिस्वाहा ।।५।।
।।जयमाला।।
पारसनाथ जिनेंद्रतने वच, पौन भखी जरते सुन पाये ।
कर्यो सरधान लह्यो पद आन भये पद्मावति शेष कहाये ।
नाम प्रताप टरैं संताप, सुभव्यन को शिवशर्म दिखाये ।
हे अश्वसेन के नंद भले, गुण गावत हैं तुमरे हर्षाये ।।
दोहाः- केकी-कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ ।
लक्षण उरग निहार पग, वंदौं पारसनाथ ।।१।।
रची नगरी छह मास अगार, बने चहुं गोपुर शोभ अपार ।
सु कोट तनी रचना छबि देत, कंगूरन पें लहकें बहुकेत ।।२।।
बनारस की रचना जु अपार, करी बहु भांति धनेश तैयार ।
तहां अश्वसेन नरेन्द्र उदार, करैं सुख वाम सु दे पटनार ।।३।।
तज्यो तुम प्रानत नाम विमान, भये तिनके वर नंदन आन ।
तबै सुर इंद्र नियोगनि आय, गिरिंद करी विधि न्हौन सुजाय ।।४।।
पिता-घर सौंपि गये निजधाम, कुबेर करै वसु जाम सुकाम ।
बढ़े जिन दोज-मयंक समान, रमैं बहु बालक निर्जर आन ।।५।।
भए जब अष्टम वर्ष कुमार, धरे अणुव्रत महा सुखकार ।
पिता जब आन करी अरदास, करो तुम ब्याह वरो ममआस ।।६।।
करी तब नाहिं रहे जग चंद, किये तुम काम कषाय जुमंद ।
चढ़े गजराज कुमारन संग, सुदेखत गंगतनी सुतरंग ।।७।।
लख्यो इक रंक कहै तप घोर, चहूंदिशि अगनि बलै अति जोर ।
कहै जिननाथ अरे सुन भ्रात, करै बहु जीवन की मत घात ।।८।।
भयो तब कोप कहै कित जीव, जले तब नाग दिखाय सजीव ।
लख्यो यह कारण भावन भाय, नये दिव ब्रह्मरिषीसुर आय ।।९।।
तबहिं सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज कंध मनोग ।
कियो वन माहिं निवास जिनंद, धरे व्रत चारित आनन्दकंद ।।१०।।
गहे तहँ अष्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास ।
दियो पयदान महासुखकार, भई पन वृष्टि तहां तिहिं बार ।।११।।
गये तब कानन माहिं दयाल, धर्यो तुम योग सबहिं अघ टाल ।
तबै वह धूम सुकेतु अयान, भयो कमठाचर को सुर आन ।।१२।।
करै नभ गौन लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर ।
कियो उपसर्ग भयानक घोर, चली बहु तीक्षण पवन झकोर ।।१३।।
रह्यो दशहूं दिश में तम छाय, लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय ।
सुरुण्डन के बिन मुण्ड दिखाय, पड़ै जल मूसलधार अथाय ।।१४।।
तबै पद्मावति-कंत धनिंद, नये जुग आय जहां जिनचंद ।
भग्यो तब रंक सुदेखत हाल, लह्यो तब केवलज्ञान विशाल ।।१५।।
दियो उपदेश महा हितकार, सुभव्यन बोध समेद पधार ।
सुवर्णभद्र जहाँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिद्ध ।।१६।।
जजूं तुम चरन दोउ कर जोर, प्रभू लखिये अबही मम ओर ।
कहै बखतावर रत्न बनाय, जिनेश हमें भव पार लगाय ।।१७।।
घत्ताः- जय पारस देवं, सुरकृत सेवं, वंदत चर्न सुनागपती ।
करुणा के धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कर्महती ।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेंद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जो पूजै मन लाय भव्य पारस प्रभु नितही ।
ताके दुख सब जाय भीति व्यापै नहि कित ही ।।
सुख संपति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे ।
अनुक्रमसों शिव लहै, ëरत्नí इमि कहै पुकारे ।।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्) ।