उत्तम छिमा मरदाव आरजव भाव है,
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं ।
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,
चहुँगति दुखते काढि मुक्ति करतार हैं ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट !
हेमाचलकी धार,मुनि-चित सम शीतल सुरभि।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाये जलं निर्वपामिति स्वाहा ।।१।।
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय संसारताप-विनाशनाये चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा ।।२।।
अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्र समान शुभ ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अक्षय-पद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा ।।३।।
फुल अनेक प्रकार, महके उरध-लोकलों ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय काम-बाण विध्वंसनाये पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा ।।४।।
नेवज विविध निहार, उत्तम षट-रस संजुगत ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय क्षुधा-रोग विनाशनाये नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा ।।५।।
बाती कपूर सुधार, दीपक-जोती सुहावनी ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय मोहान्धकार-विनाशनाये दीपं निर्वपामिति स्वाहा ।।६।।
अगर धुप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अष्ट-कर्म-दह्नाये धूपं निर्वपामिति स्वाहा ।।७।।
फल की जाति अपार, घ्राण-नयन-मन-मोहने ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय महामोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा ।।८।।
आठो दरब संवार, ‘धानत’ अधिक उछाहसौ ।
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घ-पद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।।९।।
सोरठा:-
पीडे दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें ।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ।।
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस पर-भव सुखदाई ।
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो ।।
कहि हैं अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करे ।
घर ते निकारे तन विदारे, बैर जो न तहां धरे ।।
तै करें पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जियारा ।
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयारा ।।१।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में ।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ।।
उत्तम मार्दव गुन मनमाना, मान करन को कोण ठिकाना ।
वस्यो निगोद माहि तै आया, दमरी रुकन भाग बिकाया ।।
रुकन बिकाया भाग वशतै, देव एक-इंद्री भया ।
उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ो में गया ।।
जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा |
करी विनय बहु-गुन बड़े जनकी, ज्ञान का पावे उदा ।।२।।
ॐ ह्रीं उत्तम-मार्दव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
कपट न कीजे कोई, चोरन के पूर ना बसे ।
सरल सुभावी होय, टेक घर बहु सम्पदा ।।
उत्तम आर्जव रीती बखानी, रंचक दगा बहुत दुःख दानी ।
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन से करिये ।।
करिये सरल तिहु जोग अपने, देख निर्मल आरसी ।
मुख करे जैसा लाखे तेसा, कपट-प्रीति अंगारसी ।।
नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बांध विशेषता ।
भय त्यागी दूध बिलाव पीवे, आपदा नहीं देखता ।।३।।
ॐ ह्रीं उत्तम-आर्जव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
धरी हिरिदे संतोष, करहु तपस्या देह सों ।
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ।।
उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना ।
आसा-पास महा दुःख दानी, सुख पावे संतोषी प्रानी ।।
प्रानी सदा शुची शीत जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभाव तै ।
नित गंग जमुन समुंद्र नहाये, अशुचि-दोष स्वाभाव तै ।।
ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विधि घट सूचि कहे ।
बहु देह मली सुगुन-थैली, शौच-गन साधू लहे ।।४।।
ॐ ह्रीं उत्तम-शौच धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
कठिन वचन मत बोल, पर निंदा अरु झूठ तज ।
सांचे जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ।।
उत्तम-सत्य-वरत पा लीजे, पर-विश्वातघात नहीं कीजे।
साचे-झूठे मानुष देखो, आपण पूत स्वपास न पेखो ।।
पेखो तिहायत पुरुष साचे, को दरब सब दीजिये ।
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लिख लीजिये।।
ऊँचे सिंहासन बैठे वसु नृप, धरं का भूपति भया ।
वच झूठ नरक पंहुचा, सुरग में नारद गया ।।५।।
ॐ ह्रीं उत्तम-सत्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो।
संजम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ।।
उत्तम संयम गहू मन मेरे भव-भव के भाजे अध तेरे ।
सुरग-नरक पशुगति में नाही, आलस हरन करन सुख ठाही।।
ठाही पृथ्वी जल आग मारुत, रख त्रस करुना धरो ।
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ।।
जिस बिना नहीं जिनराज सीजे, तू रुल्यो जग कीच में |
इक धरी मत विसरो करी नित, आव जम मुख बीच में ।।६।।
ॐ ह्रीं उत्तम-संयम धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
तप चाहे सुरराय, करम शिखर को वज्र हैं ।
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ।।
उत्तम तप सब माहि बखाना, करम-शैल को वज्र समाना ।
वस्यो अनादी निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ।।
धरा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता।
श्रीजैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ।।
अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै ।
नर-भव अनुपम कनक घर पर, मणिमय कलसा धरै ।।७।।
ॐ ह्रीं उत्तम-तप धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
दान चार परकार, चार संघ को दीजिये ।
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिये ।।
उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शाष्त्र अभय सहारा ।
निहचे राग द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ।।
दोनों संभारे कूप-जल सम, दरब घर में परिनया ।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ।।
धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को ।
बिन दान श्रावक साधू दोनों, लाहे नहीं बोध को ।।८।।
ॐ ह्रीं उत्तम-त्याग धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करे मुनिराज जी ।
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइये ।।
उत्तम अकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुःख ही मानो।
फाक तनस सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भाले ।।
भाले न समता सुख कभी नर, बिन मुनि मुद्रा धरें ।
धनि नगन पर तन-नगन ठाई, सुर-असुर पायानी परै ।।
घरमाहीं तिसना जो घटावे, रूचि नहीं संसार सौ ।
बहु धन बुरा हु भला कहिये, लीं पर उपगार-सौ ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-आकिंचन धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
शील-बढ़ नौ राख, ब्रह्मा भाव अंतर लखो ।
करी दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ।।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो ।
सहे बान-वरषा बहु सुरे, टिके न नैन-बान लखि कुरे ।।
कुरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें ।
बहु मृतक सडहिं मसान माहीं, त्काग ज्यो चोच भरे ।।
संसार में विष वेली नारी, तजि गए जोगिश्वरा ।
‘धानत’ धरं दश पैडी चढ़ीके, शिव-महल में पग धरा ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।
।। जयमाला ।।
दश लच्चन वंदो सदा, मनवांछित फलदाय ।
कहो आरती भारती, हम पर होहु सहाय ।।
उत्तम क्षिमा जहाँ मन होई, अंतर-बाहिर शत्रु न कोई ।
उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे , नाना भेद ज्ञान सन भासे ।।
उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागी सुगति उपजावे ।
उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्राणी संसार न डोले ।।
उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भण्डारी ।
उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सकल करे ले साता ।।
उत्तम तप निर्वांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले ।
उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ।।
उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधी दशा विस्तारे ।
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकती-फल पावे ।।
ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय जयमाला पूर्णार्घम निर्वपामिति स्वाहा ।
दोहा:-
करे करम की निरजरा, भव पिंजरा विनाश ।
अजर अमर पद को लहे, ‘धानत’ सुख की राश ।।
।।इत्याशिर्वाद।।
।।पुष्पांजलि क्षिपित।।