शाश्वत सिद्धक्षेत्र

                श्री सम्मेदशिखर सम्पूर्ण तीर्थक्षेत्रों में सर्वप्रमुख एवं शाश्वत सिद्धक्षेत्र है । इसीलिए इसे तीर्थराज कहा जाता है। इसकी एक बार वंदना - यात्रा करने से कोटि-कोटि जन्मों में संचित पापों का नाश हो जाता है। निर्वाण क्षेत्र पूजा में कविवर द्यानतराय जी ने सत्य ही लिखा है- “एक बार वन्दे जो कोई । ताहि नरक - पशुगति नहिं होई ।।“ एक बार वन्दना करने का फल मात्र नरक और पशुगति से ही छुटकारा नहीं है, अपितु परम्परा से संसार से भी छुटकारा है।

                ऐसी अनुश्रुति है कि श्री सम्मेदशिखर और अयोध्या ये दो तीर्थ अनादि-निधन - शाश्वत हैं । अयोध्या में सभी तीर्थंकरों का जन्म होता है और सम्मेदशिखर से सभी तीर्थंकरों का निर्वाण होता है। किन्तु हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से इस शाश्वत नियम में व्यतिक्रम हो गया । अतः अयोध्या में केवल पाँच तीर्थंकरों का ही जन्म हुआ और सम्मेदशिखर से केवल बीस तीर्थंकरों ने निर्वाणलाभ किया । किन्तु इनके अतिरिक्त भी असंख्य मुनियों ने यहीं पर तपश्चरण करके मुक्ति प्राप्त की। सम्मेदशिखर की वंदना से तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र से जो तीर्थंकर और अन्य मुनिवर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उनके गुणों को सच्चाई के साथ अपने हृदय में उतारें और तदनुसार अपनी आत्मा के गुणों का विकास करें। ऐसा करने से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा, इसमें संदेह नहीं।

                ढाई द्वीप में कुल १७० निर्वाणक्षेत्र होते हैं । उनमें जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का निर्वाणक्षेत्र सम्मेदशिखर ही है जो पारसनाथ हिल के नाम से विख्यात है । प्राकृत निर्वाणकाण्ड में सम्मेदशिखर से बीस तीर्थंकरों की निर्वाण-प्राप्ति का उल्लेख करते हुए उन्हें नमस्कार किया है, जो इस प्रकार है-

वीसं तु जिणविरदा अमरासुर-वंदिदा धुद- किलेसा ।
सम्मेदे गिरि- सिहरे णिव्वाण गया णमो तेसिं ।।

संस्कृत निर्वाणभक्ति में इसी बात का वर्णन इस प्रकार है-

शेषास्तु ते जिनवरा जितमोहमल्ला, ज्ञानार्वहभूरिकिरणैरवभास्य लोकान् ।
स्थानं परं निरवधारितसौख्यनिष्ठं, सम्मेदपर्वततले समवापुरीशाः ।।

प्रसिद्ध आर्षग्रंथ ‘तिलोयपण्णत्त’ (४ / ११८६ - १२०६) में तो आचार्य यतिवृषभ ने बीस तीर्थंकरों द्वारा सम्मेदशिखर पर्वत से मुक्ति प्राप्त करने का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है। उसमें उन्होंने प्रत्येक तीर्थंकर की निर्वाणप्राप्ति की तिथि, नक्षत्र और उनके साथ मुक्त होने वाले मुनियों की संख्या भी दी है। यह विवरण अत्यन्त उपयोगी और ज्ञातव्य है । अतः यहाँ दिया जा रहा है-

चेत्तस्स सुद्धपंचमिपुव्वण्हे भरणिणामरिक्खम्मि ।
सम्मेद अजियजिणे मुत्तिं पत्तो सहस्ससमं ।।

अजितनाथ जिनेन्द्र चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन पूर्वान्ह काल में भरणी नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए ।

चेत्तस्स सुक्कछट्ठीअवरण्हें जम्मभम्मि सम्मेदे ।
संपत्तो अपवग्गं संभवसामी सहस्सजुदो ।।

संभवनाथ स्वामी चैत्र शुक्ला षष्ठी के दिन अपरान्ह समय में जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ अपवर्ग (मोक्ष) को प्राप्त हुए ।

वइसाहसुक्कसत्तमिपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
दससयमहेसिसहिदो णंदणदेवो गदो मोक्खं । ।

अभिनंदननाथ वैशाख शुक्ला सप्तमी को पूर्वान्ह समय में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार महर्षियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए।

चेत्तस्स सुक्कदसमीपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे ।
दससयरिसिसंजुत्तो सुमइस्सामी स मोक्खगदो ।।

सुमतिनाथ स्वामी चैत्र शुक्ला दशमी के दिन पूर्वाहकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार ऋषियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए ।

फग्गुणकिण्ह चउत्थी अवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे ।
चउवीसाधिय तियसयसहिदो पउमप्पहो देवो ।।

पद्‌मप्रभ देव फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी के दिन अपरान्ह में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से तीन सौ चौबीस मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए ।

फग्गुणबहुलच्छट्टीपुव्वण्हे पव्वदम्मि सम्मेदे ।
अणुराहाए पणसयजुत्तों मुत्तो सुपासजिणो ।।

सुपार्श्व जिनेन्द्र फाल्गुन कृष्णा षष्ठी को पूर्वाह समय में अनुराधा नक्षत्र के रहते सम्मेद पर्वत से पाँच सौ मुनियों के साथ मुक्त हुए ।

सिदसत्तमि पुव्वण्हे भद्दपदे मुणिसस्स संजुत्तो ।
जेद्वासुं सम्मेदे चंद्रप्पह जिणवरो सिद्धो ।।

चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को पूर्वाहकाल में ज्येष्ठा नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से मुक्त हुए ।

अस्सजुद सुक्कअट्टमिअवरण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे।
मुणिवरसहस्ससहिदो सिद्धिगदो पुप्फदंतजिणो ।।

पुष्पदंत भगवान् आश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन अपरान्ह काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ सिद्धि को प्राप्त हुए ।

कत्तियसुक्के पंचमिपुव्वण्हे जम्मभम्मि सम्मेदे ।
णिव्वाणं संपत्तो सीयलदेवो सहस्सजुदो ।।

शीतलनाथ कार्तिक शुक्ला पंचमी के पूर्वाह समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ निर्वाण को प्राप्त हुए ।

सावणिय पुण्णिमाए पुव्वण्हे मुणिसहस्ससंजुत्तो ।
सम्मेदे सेयंसो सिद्धिं पत्तो धणिद्वासुं ।।

भगवान श्रेयांस श्रावण की पूर्णिमा को पूर्वान्ह में धनिष्ठा नक्षत्र में सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ सिद्ध हुए ।

सुक्कट्ठमीपदोसे आसाढे जम्मभम्मि सम्मेदे।
छस्सयमुणिसंजुत्तो मुत्तिं पत्तो विमलसामी ।।

विमलनाथ स्वामी आषाढ़ शुक्ला अष्टमी के दिन प्रदोषकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते छह सौ मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्ति को प्राप्त हुए ।

चेत्तस्स किण्ह पच्छिम दिण्णप्पदोसम्मि जम्मणक्खत्ते ।
सम्मेदम्मि अणन्तो गत्तसहस्सेहिं संपत्तो ।।

अनंतनाथ भगवान चैत्रमास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को प्रदोष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से सात हजार मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए ।

जेट्ठस्स किण्हचोद्दसिपच्चूसे जम्मभम्मि सम्मेदे ।
सिद्धो धम्मजिनिंदो रूवाहियअडसएहिं जुदो ||

धर्मनाथ जिनेन्द्र ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते आठ सौ एक मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्त हुए ।

जेट्ठस्स किण्ह चोद्दसिपदोससमयम्मि जम्मणक्खत्ते ।
सम्मेदे संतिजिणो णवसयमुणिसंजुदो सिद्धो ।।

शांतिनाथ तीर्थंकर ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रदोष काल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते नौसो मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से सिद्ध हुए ।

वइसाहसुक्कपाडिवपदोससमये हि जम्मणक्खत्ते।
सम्मेदे कुंथुजिणो सहस्ससहिदो गदो सिद्धिं ।।

कुंथुजिन वैशाख शुक्ला प्रतिपदा के दिन प्रदोष समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से सिद्ध हुए ।

चेत्तस्स बहुलचरिमे दिणम्मि णियजम्मभम्मि पच्चूसे ।
सम्मेदे अरदेओ सहस्ससहिदो गदो मोक्खं ।।

अरनाथ भगवान चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मोक्ष को प्राप्त हुए।

पंचमिपदोससमए फग्गुणबहुलम्मि भरणिणक्खत्ते ।
सम्मेदे मल्लिजिणो पंचसयसमं गदो मोक्खं ।।

मल्लिनाथ तीर्थंकर फाल्गुन कृष्णा पंचमी को प्रदोष समय में भरणी नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से पाँच सौ मुनियों के साथ मोक्ष को प्राप्त हुए ।

फग्गुणकिण्हे वारसि पदोससमयम्मि जम्मणक्खत्ते ।
सम्मेदे सिद्धिगदो सुव्वददेओ सहस्ससंजुत्तो ।।

मुनिसुव्रतनाथ फाल्गुन कृष्णा बारस के दिन प्रदोष समय में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते एक हजार मुनियों सहित सम्मेदशिखर से सिद्धि को प्राप्त हुए।

वइसाहकिण्ह चोद्दसिपच्चूसे जम्मभम्मि सम्मेदे ।
णिस्सेयस संपण्णो समं सहस्सेण णमिसामी ।।

नमिनाथ स्वामी वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रत्यूष काल में अपने जन्म नक्षत्र के रहते सम्मेदशिखर से एक हजार मुनियों के साथ निःश्रेयस पद को प्राप्त हुए ।

सिद सत्तमीपदीसे सावणमासम्मि जम्मणक्खत्ते ।
सम्मेदे पासजिणो छत्तीसजुदो गदो मोक्खं ।।

पार्श्वनाथ जिनेन्द्र श्रावण मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी को प्रदोषकाल में अपने जन्म-नक्षत्र के रहते छत्तीस मुनियों के साथ सम्मेदशिखर से मुक्त हुए ।

नोट- उत्तरपुराण में निर्वाणकल्याणक तिथियों में अन्तर है। वर्तमान में उसी के आधार से निर्वाणकल्याणक मनाने की परम्परा है। इसी प्रकार आचार्य गुणभद्र ने ‘उत्तरपुराण’ में आचार्य रविषेण ने ‘पद्‌मपुराण’ में, आचार्य जिनसेन ने ‘हरिवंशपुराण’ में तथा अन्य अनेक शास्त्रों में सम्मेदशिखर को बीस तीर्थंकरों और असंख्य मुनियों की निर्वाणभूमि बताया है। ‘मंगलाष्टक’ में भी चार तीर्थंकरों की निर्वाणभूमियों का उल्लेख करके शेष बीस तीर्थंकरों की निर्वाणभूमि के रूप में सम्मेदशैल को मंगलकारी माना है । जटासिंहनन्दी ने ‘वरांगचरित्र’ में लिखा है-

“शेषा जिनेन्द्रास्तपसः प्रभावाद् विधूय कर्माणि पुरातनानि ।
धीराः परां निर्वृतिमभ्युपेताः सम्मेदशैलोपवनान्तरेषु ।।२७/६२।।

संस्कृत और प्राकृत ग्रंथों के अतिरिक्त अपभ्रंश, हिन्दी, गुजराती, मराठी आदि भाषाओं के कवियों ने भी सम्मेदशिखर को तीर्थक्षेत्र माना है और उसे बीस तीर्थंकरों एवं अनेक मुनियों की सिद्धभूमि माना है ।

मराठी भाषा के सुप्रसिद्ध कवि गुणकीर्ति ( अनुमानतः १५वीं शताब्दी का अंतिम चरण) अपने गद्य ग्रंथ ‘धर्मामृत’ (परिच्छेद १६७) में लिखते हैं-

"संमेद महागिरि पर्वति बीस तीर्थंकर अहूठ कोड मुनिस्वरु सिद्धि पावले त्या सिद्ध क्षेत्रासिं नमस्कार माझा ।"

अपभ्रंश भाषा के कवि उदयकीर्ति (१२ - १३वीं शताब्दी) ने ‘तीर्थ वंदना’ नामक अपनी लघु रचना में सम्मेदशिखर के संबंध में निम्नलिखित उल्लेख किया है-

‘सम्मेद महागिरि सिद्ध जे वि ।
हउँ वंदउँ बीस जिणंद ते वि।’

गुजराती भाषा के कवि मेघराज (समय १६वीं शताब्दी) ने विभिन्न तीर्थों की वंदना के प्रसंग में सम्मेदशिखर की वंदना में निम्नलिखित पद्य बनाया है-

चलि जिनवर जे बीस सिद्ध हवा स्वामी संमेद गिरीए ।
सुरनर करे तिहा जात्र पूज रचे बड़भाव धरीए ।।

भट्टारक अभयनन्दि (सूरत) के शिष्य सुमतिसागर ( समय १६वीं शताब्दी के मध्य में) ने ‘तीर्थजयमाला’ में लिखा है-

" सुसंमेदाचल पूजो संत ।
सुबीस जिनेश्वर मुक्ति वसंत।।"

नन्दीतटगच्छ, काष्ठासंघ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य ज्ञानसागर (समय १५७८-१६२०) ने गुजराती में ‘सर्वतीर्थ-वंदना’ लिखी है। इसमें कुल १०१ छप्पय हैं। इनमें तीन छप्पय में सम्मेदगिरि की वंदना और प्रशंसा अत्यन्त भावपूर्ण शब्दों में की है। यहाँ उनमें से एक पद्य का रसास्वाद कराया जा रहा है-

सम्मेदाचल श्रृंग बीस जिनवर शिव पाया।
संख्या रहित मुनीश मोक्ष तिस थान सिधाया।
यात्रा जेह करंत तास पातक सबि जाये ।
मनवांछित फल पूर सद्य सुखसंपति थाये ।।
सारद अथवा सुरगुरु जो तस गुण वर्णन करे ।
ब्रह्म ज्ञानसागर वदति जन्म जन्म पातक हरे ।। १ ।।

बीस तीर्थंकरों के अतिरिक्त अनेक मुनिजन यहाँ तपस्या करके और कर्मों का नाश करके मुक्ति पधारे हैं। ऐसे कुछ मुनियों का वर्णन पुराण और कथा - ग्रंथों में उपलब्ध होता है।

‘उत्तरपुराण’ (४८ / १२६ - १३७) में सगर चक्रवर्ती का प्रेरक जीवन-चरित्र दिया गया है। जब मणिकेतु देव ने अपने पूर्वभव की मित्रता को ध्यान में रखकर सगर चक्रवर्ती को आत्म-कल्याण की प्रेरणा देने के लिए उसके साठ हजार पुत्रों के अकाल मरण का शोक-समाचार सुनाया तो चक्रवर्ती को सुनते ही संसार से वैराग्य हो गया और भगीरथ को राज्य देकर उसने मुनि दीक्षा ले ली। उधर देव ने उन साठ हजार पुत्रों को उनके पिता द्वारा मुनिदीक्षा लेने का समाचार जा सुनाया। उस समाचार को सुनकर उन सबने भी मुनि व्रत धारण कर लिया और तपस्या करने लगे । अन्त में सम्मेदशिखर से उन्होंने मुक्ति प्राप्त की ।

'सर्वे ते सुचिरं कृत्वा सत्तपो विधिवद् बुधाः ।
शुक्लध्यानेन संमेदे संप्रापन् परमं पदम्।।'

सम्मेदशिखर पर मंदिरों के निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि- भट्टारक ज्ञानकीर्ति ने ‘यशोधर चरित’ की रचना की है। यह ग्रंथ उन्होंने संवत् १६५६ में लिखा था। इस ग्रंथ की प्रशस्ति में राजा मानसिंह के मंत्री नानू का नामोल्लेख करते हुए सम्मेदशिखर पर बीस मंदिरों के निर्माण का उल्लेख है। ग्रंथकार ने पहले अपना परिचय दिया है। उसके बाद मंदिरों के निर्माण का उल्लेख किया है। प्रशस्ति का उक्त अंश यहाँ दिया जा रहा है।

राजाधिराजोत्र तदा विभाति श्रीमानसिंहो जितवैरिवर्गः ।
अनेकराजेन्द्रविनम्यपादः स्वदानसंतर्पितविश्वलोकः ।। ६२ ।।
तस्यैव राज्ञोस्ति महानमात्यो नानूसुदामा विदितो धरित्र्याम् ।
संमेदशृंगे च जिनेन्द्रगेहमष्टापदे वादिमचक्रधारी ।। ६४ ।।

योकारयद् यत्र च तीर्थनाथाः सिद्धिंगता विंशतिमानयुक्ताः ।

अर्थात् यहाँ (चम्पानगरी के निकटवर्ती अकबरपुर गाँव में) महाराज मानसिंह हैं, जिन्होंने वैरियों का दमन किया है और बड़े-बड़े राजाओं से अपने चरणों में मस्तक झुकवाया है। उनके महामंत्री का नाम नानू है। उन्होंने सम्मेदशिखर के ऊपर वहाँ से सिद्धगति को प्राप्त करने वाले बीस तीर्थंकरों के मंदिर का निर्माण कराया, जैसे प्रथम चक्रवर्ती भरत ने अष्टापद के ऊपर मंदिरों का निर्माण कराया था और उनकी कई बार यात्राएँ की थीं। इसी ग्रंथ में अन्यत्र महामंत्री नानू का परिचय इस प्रकार दिया है-

तस्य क्षितीश्वरपतेरधिकारि श्रीजैनवेश्मकृत (दुर्लभ) पुण्यधारी ।
यात्रादिधर्मशुभकर्मपथानुचारी जैनो बभूव वनिजां वर इभ्यमुख्यः ।। १७ ।।
खण्डेलवालान्वय एव गोत्रे गोधाभिधे रूपसुचन्द्रपुत्रः ।
दाता गुणज्ञो जिनपूजनेन्द्रो सिवारिधौतारिकदम्बपर्जः ।। १८ ।।
रायात्कुबेरं मदनं स्वरूपेणार्वं प्रतापेन विधुं ऐश्वर्यतां वासवमर्चयापि तिरस्करोतीह जिनेन्द्रभक्तः ।। १६ ।।
नानू सुनामा जगतीप्रसिद्धो यो मौलिबद्धावनिनाथतुल्यः ।
स्ववंशवाताध्वविकाससूरोस्य प्रार्थनातो क्रियते मयैतत् ।। २० ।।

उस राजा मानसिंह के एक अधिकारी गोधा गोत्रीय रूपचंद खण्डेलवाल थे। वह महान् पुण्यात्मा, यात्रा आदि शुभकर्म करने वाला और अत्यन्त धनाढ्य व्यापारी था। वह महान दाता, गुणज्ञ, जिनपूजन में रत रहने वाला था । वह धन में कुबेर को, स्वरूप में कामदेव को, प्रताप में सूर्य को, सौम्यता में चन्द्रमा को, ऐश्वर्य में इन्द्र को तिरस्कृत करता था । उसका पुत्र नानू था। वह राजा के समान था और अपने वंश का शिरोमणि था । उसकी प्रार्थना पर मैं यह चरित बना रहा हूँ।

महामात्य नानू ने सम्मेदशिखर के ऊपर बीस तीर्थंकरों के जो मंदिर-टोंकें बनाई, उनसे पहले वहाँ क्या मंदिर नहीं थे और थे तो वे किसने बनवाये थे? इस संबंध में अनुसंधान की आवश्यकता है।

तीर्थंकर भगवान जिस स्थान से मुक्त हुए, उस स्थान पर सौधर्मेन्द्र ने चिन्ह स्वरूप स्वस्तिक बना दिया, दिगम्बर परम्परा में इस प्रकार की मान्यता प्रचलित है। इस मान्यता के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्त श्रावकों ने उन स्थानों पर तीर्थंकरों के चरण स्थापित किये। महामात्य नानू ने जिन मंदिरों का निर्माण किया था, वे पुराने जीर्ण मंदिरों के स्थान पर ही बनाये गये थे। (यहाँ मंदिरों का अर्थ टोके हैं) मंत्रिवर नानू द्वारा बनायी गयी वे ही टोंकेअब तक वहाँ विद्यमान हैं।

मंत्रिवर नानू के पहले यहाँ मंदिर और मूर्तियाँ थीं, इस प्रकार के उल्लेख हमें कई ग्रंथों में मिलते हैं । तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् यति मदनकीर्ति, जो पं. आशाधर जी के प्रायः समकालीन थे, ने ‘शासन चतुस्त्रिशिका’ में लिखा है-

सोपानेषु सकष्टमिष्टसुकृतादारुह्य यान् वन्दते।
सौधर्माधिपति प्रतिष्ठितवपुष्का ये जिना विंशतिः ।।
मुख्याः स्वप्रमितिप्रभाभिरतुला संमेदपृथ्वीरुहि ।
भव्योन्यस्तु न पश्यति ध्रुवमिदं दिग्वाससां शासनम् || ११ ||

अर्थात् सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ जहाँ प्रतिष्ठित की हैं तथा जो प्रतिमाएँ अपने आकार की प्रभा से तुलनारहित हैं, उस सम्मेदरूपी वृक्ष पर भव्यजन कष्ट उठाकर भी सीढ़ियों द्वारा चढ़कर पुण्योदय से उन प्रतिमाओं की वंदना करते हैं। भव्य के अतिरिक्त उनके दर्शन अन्य कोई नहीं कर सकता। यह दिगम्बर-धर्म शाश्वत है अर्थात् यहाँ सदा से रहा है।

यति जी ने सम्मेदशिखर के संबंध में जो वर्णन किया है, उसमें तीन बातों का उल्लेख किया गया है- १. इस क्षेत्र पर सौधर्म इन्द्र ने बीस तीर्थंकरों की प्रतिमा स्थापित की थी । (२) उन प्रतिमाओं का प्रभामण्डल प्रतिमाओं के आकार का था, इसलिए उनकी ओर देखने के लिए श्रद्धा की आँखें ही समर्थ होती थीं। जिनके हृदय में श्रद्धा नहीं होती थी, वे इन प्रभा-पुंज स्वरूप प्रतिमाओं को देख नहीं सकते थे। (३) यतिजी के काल तक अर्थात् तेरहवीं शताब्दी तक इस तीर्थराज पर दिगम्बर समाज का आधिपत्य था।

इस वर्णन से यह फलितार्थ निकलता है कि पहले सम्मेदशिखर के ऊपर बीस मंदिर बने हुए थे और उनमें सौधर्मेन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित बीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ विराजमान थीं। ये मंदिर कितने बड़े थे और इनका क्या हुआ, यह तो पता नहीं चलता। लेकिन ऐसा लगता है कि ये मंदिर नहीं, बल्कि टोंकों के रूप में थे और पहले इन्हीं में मूर्ति विराजमान होंगी। पश्चात् असुरक्षा आदि कारणों से इन मूर्तियों के स्थान पर चरण विराजमान कर दिये होंगे और जीर्ण होने पर महामात्य नानू ने इनके स्थान पर ही बीस टोंके या मंदरियाँ बनवा दी होंगी ।

यतिवर्य मदनकीर्ति के काल में सम्मेदशिखर पर एक अमृतवापिका भी थी, जिसमें भक्त लोग अष्टद्रव्यों (जल, गंध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, धूप और फल) से बीस तीर्थंकरों के लिए अर्घ्य चढ़ाते थे।

यस्याः पायसि नामविंशतिभिदा पूजाष्टधा क्षिप्यते ।
मंत्रोच्चारण-बंधुरेण युगपन्निर्ग्रन्थरूपात्मनाम्।।
श्रीमत्तीर्थकृतां यथायथमियं संसंपनीपद्यते।
संमेदामृतवापिकेयमवताद्दिग्वाससां शासनम् ।।
- शासन - चतुस्त्रिशिका - ।। १४ ।।

अर्थात् जिसके पवित्र जल में निर्ग्रथ रूप के धारक श्री तीर्थंकरों के क्रमिक नामों के साथ सुन्दर मंत्रोच्चारणपूर्वक अष्टद्रव्य का अर्घ्य चढ़ाया जाता है और यथायोग्य रीति से उनकी पूजा की जाती है वह सम्मेदगिरि की अमृतवापिका दिगम्बर शासन की सदा रक्षा करे। यह अमृतवापिका ही वर्तमान में जल-मंदिर कहलाता है।