सम्मेदशिखर वंदना

                   ज्येष्ठ कृष्णा सप्तमी को प्रातः आहार करके हम लोगों ने पहाड़ पर चढ़ने का निर्णय लिया। तदनुसार आहार के बाद भगवान् का दर्शन करके हम पाँचों साध्वियाँ और ब्रह्मचारी - ब्रह्मचारिणी सभी एक साथ चढ़े। मार्ग में सीता नाले के पास पहुँचकर लगभग १२ बजने के समय वहाँ एक तरफ बैठकर सामायिक किया और पुनः चढ़ना प्रारंभ कर दिया। पर्वत पर चढ़ते समय बराबर णमोकार मंत्र और सिद्धचक्र मंत्र को जप रहे थे। जब भगवान् कुंथुनाथ के टोंक की दर्शन किये, हर्ष का पार नहीं रहा। हम सभी के आँखों से आनन्दाश्रु झरने लगे, ऐसा लगा कि मानो अब हमारा संसार बहुल अल्प ही रह गया है, हम लोग निश्चित भव्य हैं। इसके पूर्व मैंने तो एक बार बचपन में माता-पिता के साथ इस तीर्थ की वंदना की थी पुनः दूसरी बार क्षुल्लिका अवस्था में क्षुल्लिका विशालमती के साथ आई थी अतः यह तृतीय बार वंदना की। मेरे साथ रहने वाली आर्यिका पद्‌मावती, आर्यिका आदिमती और क्षुल्लिका श्रेयांसमती ने भी पहले इस क्षेत्र के दर्शन किये थे । मात्र आर्यिका जिनमती ने ही नहीं किये थे अतः उन्हें ही धुन लग रही थी और वे बार-बार कहा करती थीं कि- "अम्मा! मुझे शिखरजी की वंदना करा दो, जिससे यह निश्चित हो जाये कि मैं भव्य हूँ ।" अतः आज उन्हें अपने भव्यत्व का निर्णय हो गया और वे अपने में फूली नहीं समायीं । हम सभी साध्वियाँ रात्रि में वहीं कुंथुनाथजी की टोंक से लेकर चन्द्रप्रभ टोंक तक दर्शन कर शाम को कुंथुनाथ टोंक के पास एक टूटी-फूटी धर्मशाला में सोयी थीं और प्रातः उठकर पुनः आधी वंदना करके भगवान् पार्श्वनाथ की टोंक पर पहुँचकर सामायिक किया । यहाँ पर कु. मनोवती की इच्छा और प्रार्थना के अनुसार मैंने उसे सात प्रतिमा के व्रत दे दिये । अभी तक मैंने कई वर्षों से चावल का त्याग कर रखा था, मात्र एक गेहूं धान्य ही आहार में लेती थी अतः ब्र. बाबाजी यहाँ टोकों पर जो जल लाये थे उससे सर्वत्र चरणों का अभिषेक किया, अर्घ चढ़ाया पुनः एक डिब्बे में खीर लेकर आये थे, एक-एक पत्तों के दोने में खीर लेकर यहाँ चरणों के निकट नैवेद्यरूप में खीर भी चढ़ाई। इस प्रकार एक-एक दिन में आधी-आधी, ऐसे दो दिन में पूरी वंदना कर हम सभी मध्यान्ह में तीन बजे के लगभग पर्वत से उतरे, बाद में आहार ग्रहण किया। इस प्रकार कुछ वंदनाएँ हम लोगों ने दो-दो दिन में की थीं तथा कुछ वंदनाएँ प्रातः ६ बजे से चढ़कर वापसी तीन बजे तक आकर की थी । मेरे साथ आर्यिका पद्‌मावती जी थीं, वे प्रातः उजेला होने पर वंदना के लिए निकलतीं और १० बजे तक आहार के समय वापस आ जाती थीं। मैंने पूछा - “तुम सारे टोंकों के दर्शन इतनी जल्दी कैसे कर लेती हो?” वह बोलीं- "अम्मा ! मैं जल्दी-जल्दी चढ़कर, वहाँ पहुँचकर, प्रत्येक टोंक के पास एक कायोत्सर्ग कर पंचांग नमस्कार करती हूँ, ऐसे ही चौबीसों टोंकों की वंदना करके ही आती हूँ ।" उनकी ऐसी शक्ति देखकर मुझे बहुत ही आश्चर्य होता था। यहाँ शिखरजी की वंदना के बाद सरदारमल जैन जयपुर वाले, ब्र. मूलीबाई और प्रकाशचंद जैन टिकैतनगर वाले, ये तो आशीर्वाद लेकर अपने-अपने घर चले गये । प्रकाशचंद के पिता के द्वारा दिया गया पत्र एवं तार हमें यहाँ पहुँचते ही मिल गया था, अतः अब इन्हें घर जाना ही था । हम पांचों साध्वियाँ यहाँ लगभग १ माह आनंद से ठहरीं । ब्र. सुगनचंद, उनकी बहन, ब्र. भंवरीबाई और कु. मनोवती, ये चारों यहीं संघ में ठहरे हुए थे । यहाँ दो चौके करते थे। हम लोग निराकुलता से यहाँ धर्माराधना कर रहे थे ।