सम्मेदशिखर का माहात्म्य और उसकी वंदना से होने वाले पुण्य फल को मैंने जो समझा था, श्रद्धान किया था, उसे ही सोलापुर में संस्कृत स्तोत्र और हिन्दी स्तोत्र में संजोया था । उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिये- “ श्रीसम्मेदशिखर वंदना’ में प्रथम श्लोक-
सिद्धान् सर्वान् नमस्कृत्य,
सिद्धस्थानं जिनेशिनां ।
पूज्यं सम्मेदशैलेन्द्रं,
भक्तया संस्तौमि सिद्धये
।।
- एक कूट की वंदना में-
कूटे सिद्धवराभिख्येजितनाथः
शिवं ययौ ।
सहस्रमुनिभिः सार्धं,
वंदे भक्तया शिवाप्तये ।।
- स्कंध छंद-
तत्कूटे चैकार्बुद-चतुरशीतिकोटिपंचचत्वारिंशत् ।
लक्षप्रमिता मुनयो,
दग्ध्वा कर्माणि मुक्तिमापुर्योगात्
।।
-अनुष्टप्-
मनसा वपुषा वाचा,
संततं भक्ति भावतः ।
तान् सुसिद्धान् नमस्यामि,
स्वकर्ममलहानये ।।
पुनः अंत में- कुरुते वंदनां
भक्तया, वारमेकंजनोस्य यः ।
तिर्यंङ्नरकगत्योश्च गमनं तस्य
नो भवेत् ।।
तथा चैकोनपंचाशत्
भवस्याभ्यंतरे स हि ।
नियमाल्लप्स्यते मुक्तिमेतदुत्तं
जिनेश्वरे ।।
- इसी का हिन्दी अनुवाद है-
सिद्धों को कर नमस्कार,
सम्मेदगिरीन्द्र स्तवन करूँ ।
सिद्धभूमि के वंदन से,
कटु कर्मकाष्ठ को दहन करूँ
।।
कूट सिद्धवर से श्री अजितप्रभु
सहस्र मुनियों के साथ |
भव समुद्र से पार हुए हैं,
वंदन करूँ नमाकर माथ
।।
मुनिगण एक अरब चौरासी,
कोटि तथा पैंतालिस लक्ष ।
इसी कूट पर कर्मनाश कर,
मोक्ष गये वंदूं मैं नित ।।
मैंने पुनः सन् १६८७ में सम्मेदशिखर विधान पूजन बनायी है। उसमें टोंक के अर्ध के साथ उनकी वंदना से होने वाले उपवासों की संख्या भी दी है। यथा-
श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं ।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं ।।
इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी ।
निर्वाण गये सबको पूजूँ, मैं पाऊँ निज चैतन्य मणी ।।
दोहा
भावसहित इस टोंक की,
करूँ वंदना आज ।
बत्तिस कोटि उपवास फल,
अनुक्रम से निज राज्य ।।
ॐ ह्रीं सिद्धवरकूटात सिद्धपदप्राप्त सर्वमुनिसहित अजितनाथ जिनेंद्राय अर्घं ।
इसी प्रकार मथुरा में श्रीजंबूस्वामी की चरण वंदना कर मैं आगे बढ़ी थी तो निर्विघ्न यात्रा हो गई थी। इस निमित्त से
मेरी जंबूस्वामी के प्रति भी भक्ति भावना बढ़ गई थी अतः श्रवणबेलगोल में सर्वप्रथम बाहुबलि स्तोत्र संस्कृत और
बाहुबलि चरित हिंदी पद्य में रचने के बाद श्रीजंबूस्वामी की स्तुति भी बनायी थी । उसका प्रथम श्लोक यह है-
विहितविमलसम्यव्खड्गधाराव्रतः प्राक् ।
भव इह न हि कांतासक्तचेता निकामः ।।
इह भरतधरायामंतिमः केवली तम् ।
त्रिभुवननुतजंबूस्वामिनं स्तौमि भक्त्य
बीसपंथी कोठी में तीन आते हैं एवं धर्मशालाओं में १६६ कमरे हैं। इसके मुख्य मंदिर में आठ शिखरबंद जिनालय हैं। तेरहपंथी कोठी में पाँच आते और पाँच धर्मशालाएँ हैं तथा बारह जिनालय और एक सहस्रकूट जिनालय है। यह सन् १९७५ में लिखी गई ‘भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ’ पुस्तक से लिया है चूँकि बहुत सी रचनाएँ बाद में बनी हैं। उस समय नंदीश्वर द्वीप तो बन रहा था। समवसरण मंदिर बाद में बना है । अब तो वहाँ आर्यिका सुपार्श्वमती जी द्वारा चार सौ अट्ठावन जिनमंदिरों का निर्माण कराया जा रहा है जो कि मध्यलोक संस्थान नाम से प्रसिद्ध है। कल्याणसागर नाम के एक मुनिराज ने वहाँ ‘कल्याणनिकेतन’ नाम से एक संस्था खोली है, जिसमें भी विभिन्न निर्माण हो रहे है ।