एकीभाव स्तोत्र - हिंदी

कविवर भूधरदास जी कृत भाषानुवाद ।

दोहा :- वादिराज मुनिराज के, चरणकमल चित्त लाय ।

भाषा एकीभाव की, करुँ स्वपर सुखदाय ।

( रोला छन्दः "अहो जगत गुरुदेव" विनती की चाल में )


यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी ।

जो मुझ-कर्म प्रबंध करत भव भव दुःख भारी ।।

ताहि तिहांरी भक्ति जगतरवि जो निरवारै ।

तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै ।।१।।


तुम जिन जोतिस्वरुप दुरित अँधियारि निवारी ।

सो गणेश गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी ।।

मेरे चित्त घर माहिं बसौ तेजोमय यावत ।

पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत ।।२।।


आनँद-आँसू वदन धोयं तुम जो चित्त आने ।

गदगद सरसौं सुयश मन्त्र पढ़ि पूजा ठानें ।।

ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी ।

भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी ।।३।।


दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल ।

पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल ।।

मन-गृह ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी ।

जो सुरवन तन करो कौन यह अचरज स्वामी ।।४।।


प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी ।

निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहांरी ।।

भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे ।

मेरे दुःख-संताप देख किम धीर धरोगे ।।५।।


भव वन में चिरकाल भ्रम्यों कछु कहिय न जाई ।

तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग से पाई ।।

शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम ।

करत न्हौन ता माहिं क्यों न भवताप बझै मम ।।६।।


श्रीविहार परिवाह होत शुचिरुप सकल जग ।

कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग ।।

मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावे ।

अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिग आवे ।।७।।


भव तज सुख पद बसे काम मद सुभट संहारे ।

जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहांरे ।।

तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवै ।

तिन्हैं भयानक क्रूर रोगरिपु कैसे छीवै ।।८।।


मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर ।

ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अंतर ।।

देखत दृष्टि प्रमान मानमद तुरत मिटावे ।

जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावे ।।९।।


प्रभुतन पर्वत परस पवन उर में निबहे है ।

ता सों तत छिन सकल रोग रज बाहिर ह्रै है ।।

जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं ।

कौन जगत उपकार-करन समरथ सो नाहीं ।।१०।।


जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो ।

याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानों ।।

तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है ।

जो कुछ करनो होय करो परमान वही है ।।११।।


मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो ।

पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो ।।

जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर ।

इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर ।।१२।।


जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै ।

अनवधि सुख की सार भक्ति कूंची नहिं लांघे ।।

सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे ।

मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै ।।१३।।


शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अतिछायो ।

दुःख सरुप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो ।।

स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें ।

प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगे ।।१४।।


कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी ।

देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ।।

तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै ।

थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारै ।।१५।।


स्याद् वाद-गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई ।

तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ।।

मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामें ।

अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में ।।१६।।


तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो ।

मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो ।।

यदपि झूठ है तदपि त्रप्ति निश्चल उपजावे ।

तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावे ।।१७।।


वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे ।

भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापे ।।

मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यज्ञानी ।

परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्रानी ।।१८।।


जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभिलाखे ।

वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे ।।

तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई ।

भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई ।।१९।।


सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी ।

सो सलाघना लहै मिटे जग सों जग फेरी ।।

तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये ।

तुही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ।।२०।।


वचन जाल जड़ रुप आप चिन्मूरति झांई ।

तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम तांई ।।

तो भी निर्फल नाहिं भक्ति रस भीने वायक ।

संतन को सुर तरु समान वांछित वरदायक ।।२१।।


कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूं नहिं धारो ।

अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहांरो ।।

तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये ।

यह प्रभुता जगतिलका कहां तुम बिन सरदहिये ।।२२।।


सुरतिय गावें सुजश सर्व गति ज्ञान स्वरुपी ।

जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनंद रुपी ।।

ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हैं ।

श्रुत के सुमरन माहिं सो न कबहूं नर मोहै ।।२३।।


अतुल चतुष्टय रूप तुम्हें जो चित में धारे ।

आदर सों तिहुं काल माहिं जग थुति विस्तारे न ।

सो सुकृत शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरे ।

पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुःख चूरे ।।२४।।


अहो जगत पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे ।

तुम गुन कीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे ।।

थुति छल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे ।

शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे ।।२५।।


वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे ।

वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्यावारे ।।

वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यन के ज्ञाता ।

वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता ।।२६।।


दोहा


मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मँझार ।

भक्ति माल 'भूधर' करी, करो कंठ सुखकार ।।