चारुचरन आचरन, चरन चितहरन चिन्ह चर ।
चंद-चंद-तनचरित, चंद थल चहत चतुर नर ।
चतुक चंड चकचूरि, चारि चिद्चक्र गुनाकर ।
चंचल चलित सुरेश, चूलनुत चक्र-धनुरर्हर ।
चर अचर हितू तारन तरन, सुनत चहकि चिर नंद शुचि ।
जिनचंद चरन चरच्यो चहत, चितचकोर नचि रच्चि रुचि ।।१।।
दोहाः- धनुष डेढ़ सौ तुंग तन, महासेन नृपनंद ।
मातु लक्षमना उर जये, थापौं चंद जिनंद ।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
गंगाह्रद निरमल नीर, हाटक भृंग भरा ।
तुम चरन जजौं वरवीर, मेटो जनम जरा ।
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै ।
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा ।।१।।
श्रीखण्ड कपूर सुचंग, केशर रंग भरी ।
घसि प्रासुक जल के संग, भवआताप हरी ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा ।।२।।
तंदुल सित सोम समान, सम लय अनियारे ।
दिये पुंज मनोहर आन, तुम पदतर प्यारे ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा ।।३।।
सुर द्रुम के सुमन सुरंग, गंधित अलि आवे ।
ता सों पद पूजत चंग, कामविधा जावे ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा ।।४।।
नेवज नाना परकार, इंद्रिय बलकारी ।
सो ले पद पूजौं सार, आकुलता-हारी ।
श्री चंद्रनाथ दुति चंद, चरनन चंद लसै ।
मन वच तन जजत अमंद-आतम-जोति जगे ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि.स्वाहा ।।५।।
तम भंजन दीप संवार, तुम ढिग धारतु हौं ।
मम तिमिरमोह निरवार, यह गुण याचतु हौं ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा ।।६।।
दसगंध हुतासन माहिं, हे प्रभु खेवतु हौं ।
मम करम दुष्ट जरि जाहिं, या तें सेवतु हौं ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.स्वाहा ।।७।।
अति उत्तम फल सु मंगाय, तुम गुण गावतु हौं ।
पूजौं तनमन हरषाय, विघन नशावतु हौं ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.स्वाहा ।।८।।
सजि आठों दरब पुनीत, आठों अंग नमौं ।
पूजौं अष्टम जिन मीत, अष्टम अवनि गमौं ।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभ जिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।९।।
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
कलि पंचम चैत सुहात अली, गरभागम मंगल मोद भली ।
हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्मसिता ।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णा पंचम्यांगर्भमंगलंडिताय श्रीचंद्रप्रभुप्रभजिनेंद्राय अर्घ्यं नि.स्वाहा
।।१।।
कलि पौष एकादशि जन्म लयो, तब लोकविषै सुख थोक भयो ।
सुरईश जजैं गिरिशीश तबै, हम पूजत हैं नुत शीश अबै ।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां जन्ममंगल मंडिताय श्रीचंद्रप्रभुजिअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।२।।
तप दुद्धर श्रीधर आप धरा, कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा ।
निज ध्यान विषै लवलीन भये, धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णैकादश्यां तपोमंगल मंडिताय श्रीचंद्रप्रभुजिअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।३।।
वर केवल भानु उद्योत कियो, तिहुंलोकतणों भ्रम मेट दियो ।
कलि फाल्गुन सप्तमि इंद्र जजें, हम पूजहिं सर्व कलंक भजें ।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तम्यां केवलज्ञान मंडिताय श्रीचंद्रप्रभुजिअर्घ्यं नि.स्वाहा
।।४।।
सित फाल्गुन सप्तमि मुक्ति गये, गुणवंत अनंत अबाध भये ।
हरि आय जजे तित मोद धरे, हम पूजत ही सब पाप हरे ।
ॐ ह्रीं फाल्गुनशुक्ला सप्तम्यां मोक्षमंगल मंडिताय श्रीचंद्रप्रभुजिअर्घ्यं नि.स्वाहा
।।५।।
।।जयमाला।।
हे मृगांद अंकित चरण, तुम गुण अगम अपार ।
गणधर से नहिं पार लहिं, तौ को वरनत सार ।।१।।
पै तुम भगति मम हिये, प्रेरे अति उमगाय ।
तातैं गाऊं सुगुण तुम, तुम ही होउ सहाय ।।२।।
जय चंद्र जिनेंद्र दयानिधान, भवकानन हानन दव प्रमान ।
जय गरभ जनम मंगल दिनंद, भवि-जीव विकाशन शर्म कन्द ।।३।।
दशलक्ष पूर्व की आयु पाय, मनवांछित सुख भोगे जिनाय ।
लखि कारण ह्वै जगतैं उदास, चिंत्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ।।४।।
तित लोकांतिक बोध्यो नियोग, हरि शिविका सजि धरियो अभोग ।
तापै तुम चढ़ि जिनचंदराय, ताछिन की शोभा को कहाय ।।५।।
जिन अंग सेत सित चमर ढार, सित छत्र शीस गल गुलक हार ।
सित रतन जड़ित भूषण विचित्र, सित चंद्रप्रभु चरण चरचें पवित्र ।।६।।
सित तनद्युति नाकाधीश आप, सित शिविका कांधे धरि सुचाप ।
सित सुजस सुरेश नरेश सर्व, सित चित्त में चिंतत जात पर्व ।।७।।
सित चंद्र नगर तें निकसि नाथ, सित वन में पहुचे सकल साथ ।
सित शिला शिरोमणि स्वच्छ छाँह, सित तप तित धार्यो तुम जिनाह ।।८।।
सित पय को पारण परम सार, सित चंद्रदत्त दीनों उदार ।
सित कर में सो पय धार देत, मानो बांधत भवसिंधु सेत ।।९।।
मानो सुपुण्य धारा प्रतच्छ, तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ।
फिर जाय गहन सित तप करंत, सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ।।१०।।
लहि सनवसरन रचना महान, जा के दरसन सब पाप हान ।
जहँ तरु अशोक शोभै उतंग, सब शोक तनो चूरै प्रसंग ।।११।।
सुर सुमन वृष्टि नभ तें सुहात, मनु मन्मथ तजि हथियार जात |
बानी जिनमुख सों खिरत सार, मनु तत्व प्रकाशन मुकुर धार ।।१२।।
जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत, मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत ।
सिंहासन है जहँ कमल जुक्त, मनु शिव सरवर को कमल शुक्ल ।।१३।।
दुंदुभि जित बाजत मधुर सार, मनु करमजीत को है नगार ।
शिर छत्र फिरै त्रय श्वेत वर्ण, मनु रतन तीन त्रय ताप हर्ण ।।१४।।
तन प्रभा तनो मंडल सुहात, भवि देखत निज भव सात सात ।
मनु दर्पण द्युति यह जगमगाय, भविजन भव मुख देखत सु आय ।।१५।।
इत्यादि विभूति अनेक जान, बाहिज दीसत महिमा महान ।
ता को वरणत नहिं लहत पार, तो अंतरंग को कहै सार ।।१६।।
अनअंत गुणनिजुत करि विहार, धरमोपदेश दे भव्य तार ।
फिर जोग निरोध अघातिहान, सम्मेदथकी लिय मुकतिथान ।।१७।।
ëवृन्दावन वंदत शीश नाय, तुम जानत हो मम उर जु भाय ।
ता तें का कहौं सु बार बार, मनवांछित कारज सार सार ।।१८।।
जय चंद जिनंदा, आनंदकंदा, भवभयभंजन राजैं हैं ।
रागा दिक द्वंदा, हरि सब फंदा, मुकति मांहि थिति साजैं हैं ।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभुप्रभजिनेद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिनचंद जजें ।
ता के भव-भव के अघ भाजें, मुक्तिसार सुख ताहि सजें ।
जम के त्रास मिटें सब ताके, सकल अमंगल दूर भजें ।
वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जा तें शिवपुरि राज रजें ।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)