जय जय जिनिंद गनिंद इन्द, नरिंद गुन चिंतन करें ।
तन हरीहर मनसम हरत मन, लखत उर आनन्द भरें ।।
नृप सुपरतिष्ठ वरिष्ठ इष्ट, महिष्ठ शिष्ट पृथी प्रिया ।
तिन नन्दके पद वन्द वृन्द, अमंद थापत जुतक्रिया ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
उज्ज्वल जल शुचि गंध मिलाय, कंचनझारी भरकर लाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा ।।१।।
मलयागिर चंदन घसि सार, लीनो भवतप भंजनहार ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा ।।२।।
देवजीर सुखदास अखंड, उज्ज्वल जलछालित सित मंड ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा ।।३।।
प्रासुक सुमन सुगंधित सार, गुंजत अलि मकरध्वजहार ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा ।।४।।
छुधाहरण नेवज वर लाय, हरौं वेदनी तुम्हें चढ़ाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि.स्वाहा ।।५।।
ज्वलित दीप भरकरि नवनीत, तुम ढिग धारतु हौं जगमीत ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा ।।६।।
दशविधि गन्ध हुताशन माहिं, खेवत क्रूर करम जरि जाहिं ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
तुम पद पूजौं मनवचकाय, देव सुपारस शिवपुरराय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.स्वाहा ।।७।।
श्रीफल केला आदि अनूप, ले तुम अग्र धरौं शिवभूप ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.स्वाहा ।।८।।
आठों दरब साजि गुनगाय, नाचत राचत भगति बढ़ाय ।
दया निधि हो, जय जगबंधु दया निधि हो ।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।९।।
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
सुकल भादव छट्ठ सु जानिये, गरभ मंगल ता दिन मानिये ।
करत सेव शची रचि मात की, अरघ लेय जजौं वसु भांत की ।।
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्लाषष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१०।।
सुकल जेठ दुवादशि जन्मये, सकल जीव सु आनन्द तन्मये ।
त्रिदशराज जजें गिरिराजजी, हम जजें पद मंगल साजजी ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१२।।
जनम के तिथि पे श्रीधर ने धरी, तप समस्त प्रमादन को हरी ।
नृप महेन्द्र दियो पय भाव सौं, हम जजें इत श्रीपद चाव सों ।।
ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्लाद्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१३।।
भ्रमर फागुन छट्ठ सुहावनो, परम केवलज्ञान लहावनो ।
समवसर्न विषैं वृष भाखियो, हम जजें पद आनन्द चाखनो ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा षष्ठीदिने केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१४।।
असित फागुन सातय पावनो, सकल कर्म कियो छय भावनो ।
गिरि समेदथकी शिव जातु हैं, जजत ही सब विघ्न विलातु हैं ।।
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णा सप्तमीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुपार्श्व अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१५।।
।।जयमाला।।
दोहाः- तुंग अंग धनु दोय सौ, शोभा सागरचन्द ।
मिथ्यातपहर सुगुनकर, जय सुपास सुखकंद ।।१।।
जयति जिनराज शिवराज हितहेत हो ।
परम वैराग आनन्द भरि देत हो ।।
गर्भ के पूर्व षट्मास धनदेव ने ।
नगर निरमापि वाराणसी सेव में ।।२।।
गगन सों रतन की धार बहु वरषहीं ।
कोड़ि त्रैअर्द्ध त्रैवार सब हरषहीं ।।
तात के सदन गुनवदन रचना रची ।
मातु की सर्वविधि करत सेवा शची ।।३।।
भयो जब जनम तब इन्द्र-आसन चल्यो ।
होय चकित तब तुरित अवधितैं लखि भल्यो ।।
सप्त पग जाय शिर नाय वन्दन करी ।
चलन उमग्यो तबै मानि धनि धनि घरी ।।४।।
सात विधि सैन गज वृषभ रथ बाज ले ।
गन्धरव नृत्यकारी सबै साज ले ।।
गलित मद गण्ड ऐरावती साजियो ।
लच्छ जोजन सुतन वदन सत राजियो ।।५।।
वदन वसुदन्त प्रतिदन्त सरवर भरे ।
ता सु मधि शतक पनबीस कमलिनि खरे ।।
कमलिनी मध्य पनवीस फूले कमल ।
कमल-प्रति-कमल मँह एक सौ आठ दल ।।६।।
सर्वदल कोड़ शतबीस परमान जू ।
ता सु पर अपछरा नचहिं जुतमान जू ।।
तततता तततता विततता ताथई ।
धृगतता धृगतता धृगतता में लई ।।७।।
धरत पग सनन नन सनन नन गगन में ।
नूपुरे झनन नन झनन नन पगन में ।।
नचत इत्यादि कई भाँति सों मगन में ।
केई तित बजत बाजे मधुर पगन में ।।८।।
केई दृम दृम दुदृम दृम मृदंगनि धुनै ।
केई झल्लरि झनन झंझनन झंझनै ।।
केई संसाग्रते सारंगि संसाग्र सुर ।
केई बीना पटह बंसि बाजें मधुर ।।९।।
केई तनतन तनन तनन ताने पुरैं ।
शुद्ध उच्चारि सुर केई पाठैं फुरैं ।।
केइ झुकि झुकि फिरे चक्र सी भामिनी ।
धृगगतां धृगगतां पर्म शोभा बनी ।।१०।।
केई छिन निकट छिन दूर छिन थूल-लघु ।
धरत वैक्रियक परभाव सों तन सुभगु ।।
केई करताल-करताल तल में धुनें ।
तत वितत घन सुषिरि जात बाजें मुनै ।।११।।
इन्द्र आदिक सकल साज संग धारिके ।
आय पुर तीन फेरी करी प्यार तें ।।
सचिय तब जाय परसूतथल मोद में ।
मातु करि नींद लीनों तुम्हें गोद में ।।१२।।
आन-गिरवान नाथहिं दियो हाथ में ।
छत्र अर चमर वर हरि करत माथ में ।।
चढ़े गजराज जिनराज गुन जापियो ।
जाय गिरिराज पांडुक शिला थापियो ।।१३।।
लेय पंचम उदधि-उदक कर कर सुरनि ।
सुरन कलशनि भरे सहित चर्चित पुरनि ।।
सहस अरु आठ शिर कलश ढारें जबै ।
अघघ घघ घघघ घघ भभभ भभ भौ तबै ।।१४।।
धधध धध धधध धध धुनि मधुर होत है ।
भव्य जन हंस के हरस उद्योत है ।।
भयो इमि न्हौन तब सकल गुन रंग में ।
पोंछि श्रृंगार कीनों शची अंग में ।।१५।।
आनि पितुसदन शिशु सौंपि हरि थल गयो ।
बाल वय तरुन लहि राज सुख भोगियो ।।
भोग तज जोग गहि, चार अरि कों हने ।
धारि केवल परम धरम दुइ विध भने ।।१६।।
नाशि अरि शेष शिवथान वासी भये ।।
ज्ञानदृग अरि शेष शिवथान वासी भये ।
दीन जन की करुण सुन लीजिये ।
धरम के नन्द को पार अब कीजिये ।।१७।।
घर्त्ताः- जय करुनाधारी, शिवहितकारी तारन तरन जिहाजा हो ।
सेवत नित वन्दे मनआंनदे, भवभय मेटनकाजा हो ।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्वनाथजिनेंद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहाः- श्री सुपार्श्व पदजुगल जो जजें पढ़े यह पाठ ।
अनुमोदें सो चतुर नर पावें आनन्द ठाठ ।।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)