शीतलनाथ नमौं धरि हाथ, सु माथ जिन्हों भव गाथ मिटाये ।
अच्युत तें च्युत मात सुनन्द के, नन्द भये पुर बद्दल आये ।।
वंश इक्ष्वाकु कियो जिन भूषित, भव्यन को भव पार लगाये ।
ऐसे कृपानिधि के पद पंकज, थापतु हौं हिय हर्ष बढ़ाये ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
देवापगा सु वर वारि विशुद्ध लायो,
भृंगार हेम भरि भक्ति हिये बढ़ायो ।
रागादिदोष मल मर्दन हेतु येवा,
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा ।।१।।
श्रीखंड सार वर कुंकुम गारि लीनों ।
कं संग स्वच्छ घिसि भक्ति हिये धरीनों ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा ।।२।।
मुक्ता-समान सित तंदुल सार राजे ।
धारंत पुंज कलिकंज समस्त भाजें ।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा ।।३।।
श्री केतकी प्रमुख पुष्प अदोष लायो ।
नौरंग जंग करि भृंग सु रंग पायो ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा ।।४।।
नैवेद्य सार चरु चारु संवारि लायो ।
जांबूनद-प्रभृति भाजन शीश नायो ।।
रागादिदोष मल मर्द्दन हेतु येवा ।
चर्चौं पदाब्ज तव शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि.स्वाहा ।।५।।
स्नेह प्रपूरित सुदीपक जोति राजे ।
स्नेह प्रपूरित हिये जजतेघ भाजे ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा ।।६।।
कृष्णागरू प्रमुख गंध हुताश माहीं ।
खेवौं तवाग्र वसुकर्म जरंत जाही ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.स्वाहा ।।७।।
निम्बाम्र कर्कटि सु दाड़िम आदि धारा ।
सौवर्ण-गंध फल सार सुपक्व प्यारा ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.स्वाहा ।।८।।
शुभ श्री-फलादि वसु प्रासुक द्रव्य साजे ।
नाचे रचे मचत बज्जत सज्ज बाजे ।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतलनाथ जिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।९।।
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
आठैं वदी चैत सुगर्भ मांही, आये प्रभू मंगलरुप थाहीं ।
सेवै शची मातु अनेक भेवा, चर्चौं सदा शीतलनाथ देवा ।।
ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णाष्टम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीशीतल अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१।।
श्री माघ की द्वादशि श्याम जायो, भूलोक में मंगल सार आयो ।
शैलेन्द्र पै इन्द्र फनिन्द्र जज्जे, मैं ध्यान धारौं भवदुःख भज्जे ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीशीतल अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।२।।
श्री माघ की द्वादशि श्याम जानो, वैराग्य पायो भवभाव हानो ।
ध्यायो चिदानन्द निवार मोहा, चर्चौं सदा चर्न निवारि कोहा ।।
ॐ ह्रीं माघकृष्णा द्वादश्यां तपोमंगलमंडिताय श्रीशीतल अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।३।।
चतुर्दशी पौष वदी सुहायो, ताही दिना केवल लब्धि पायो ।
शोभै समोसृत्य बखानि धर्मं, चचौं सदा शीतल पर्म शर्मं ।।
ॐ ह्रीं पौषकृष्णाचतुर्दश्यां केवल ज्ञानमंगलमंडिताय श्रीशीतल अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।4।।
कुवार की आठैं शुद्ध बुद्धा, भये महा मोक्ष सरुप शुद्धा ।
सम्मेद तें शीतलनाथ स्वामी, गुनाकरं ता सु पदं नमामी ।।
ॐ ह्रीं आश्विनशुक्लाष्टम्यां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीशीतल अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।५।।
।।जयमाला।।
आप अनंत गुनाकर राजे, वस्तुविकाशन भानु समाजे ।
मैं यह जानि गही शरना है, मोह महारिपु को हरना है ।।१।।
दोहाः- हेम वरन तन तुंग धनु-नव्वै अति अभिराम ।
सुर तरु अंक निहारि पद, पुनि पुनि करौं प्रणाम ।।२।।
जय शीतलनाथ जिनन्द वरं, भव दाह दवानल मेघझरं ।
दुख-भुभृत-भंजन वज्र समं, भव सागर नागर-पोत-पमं ।।३।।
कुह-मान-मयागद-लोभ हरं, अरि विघ्न गयंद मृगिंद वरं ।
वृष-वारिधवृष्टन सृष्टिहितू, परदृष्टि विनाशन सुष्टु पितू ।।४।।
समवस्रत संजुत राजतु हो, उपमा अभिराम विराजतु हो ।
वर बारह भेद सभा थित को, तित धर्म बखानि कियो हित को ।।५।।
पहले महि श्री गणराज रजैं, दुतिये महि कल्पसुरी जु सजैं ।
त्रितिये गणनी गुन भूरि धरैं, चवथे तिय जोतिष जोति भरैं ।।६।।
तिय-विंतरनी पन में गनिये, छह में भुवनेसुर तिय भनिये ।
भुवनेश दशों थित सत्तम हैं, वसु-विंतर उत्तम हैं ।।७।।
नव में नभजोतिष पंच भरे, दश में दिविदेव समस्त खरे ।
नरवृन्द इकादश में निवसें, अरु बारह में पशु सर्व लसें ।।८।।
तजि वैर, प्रमोद धरें सब ही, समता रस मग्न लसें तब ही ।
धुनि दिव्य सुनें तजि मोहमलं, गनराज असी धरि ज्ञानबलं ।।९।।
सबके हित तत्त्व बखान करें, करुना-मन-रंजित शर्म भरें ।
वरने षटद्रव्य तनें जितने, वर भेद विराजतु हैं तितने ।।१०।।
पुनि ध्यान उभै शिवहेत मुना, इक धर्म दुती सुकलं अधुना ।
तित धर्म सुध्यान तणों गुनियो, दशभेद लखे भ्रम को हनियो ।।११।।
पहलोरि नाश अपाय सही, दुतियो जिन बैन उपाया गही ।
त्रिति जीवविषैं निजध्यावन है, चवथो सु अजीव रमावन है ।।१२।।
पनमों सु उदै बलटारन है, छहमों अरि-राग-निवारन है ।
भव त्यागन चिंतन सप्तम है, वसुमों जितलोभ न आतम है ।।१३।।
नवमों जिन की धुनि सीस धरे, दशमों जिनभाषित हेत करे ।
इमि धर्म तणों दश भेद भन्यो, पुनि शुक्लतणो चदु येम गन्यो ।।१४।।
सुपृथक्त-वितर्क-विचार सही, सुइकत्व-वितर्क-विचार गही ।
पुनि सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपात कही, विपरीत-क्रिया-निरवृत्त लही ।।१५।।
इन आदिक सर्व प्रकाश कियो, भवि जीवनको शिव स्वर्ग दियो ।
पुनि मोक्षविहार कियो जिनजी, सुखसागर मग्न चिरं गुनजी ।।१६।।
अब मैं शरना पकरी तुमरी, सुधि लेहु दयानिधि जी हमरी ।
भव व्याधि निवार करो अब ही, मति ढील करो सुख द्यो सब ही ।।१७।।
शीतल जिन ध्याऊं भगति बढ़ाऊं, ज्यों रतनत्रय निधि पाऊं ।
भवदंद नशाऊं शिवथल जाऊं, फेर न भव वन में आऊं ।।१८।।
दिढ़रथ सुत श्रीमान् पंचकल्याणक धारी,
तिन पद जुगपद्म जो जजै भक्तिधारी ।
सहजसुख धन धान्य, दीर्घ सौभाग्य पावे,
अनुक्रम अरि दाहै, मोक्ष को सो सिधावै ।।
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)