श्री श्रेयांशनाथजी जिन पूजा

विमल नृप विमला सुअन, श्रेयांसनाथ जिनन्द ।

सिंहपुर जन्मे सकल हरि, पूजि धरि आनन्द ।।

भव बंध ध्वंसनिहेत लखि मैं शरन आयो येव ।

थापौं चरन जुग उरकमल में, जजनकारन देव ।।१।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् ।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः ।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।


कलधौत वरन उतंग हिमगिरि पदम द्रह तें आवई ।

सुरसरित प्रासुक उदक सों भरि भृंग धार चढ़ावई ।।

श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं ।

दुखदंद फंद निकंद पूरन चन्द जोतिअमंद हैं ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि.स्वाहा ।।१।।


गोशीर वर करपूर कुंकुम नीर संग घसौं सही ।

भवताप भंजन हेत भवदधि सेत चरन जजौं सही ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि.स्वाहा ।।२।।


सित शालि शशि दुति शुक्ति सुन्दर मुक्तकी उनहार हैं ।

भरि थार पुंज धरंत पदतर अखयपद करतार हैं ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि.स्वाहा ।।३।।


सद सुमन सु मन समान पावन, मलय तें मधु झंकरें ।

पद कमलतर धरतैं तुरित सो मदन को मद खंकरें ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि.स्वाहा ।।४।।


यह परम मोदक आदि सरस सँवारि सुन्दर चरु लियो ।

तुव वेदनी मदहरन लखि, चरचौं चरन शुचिकर हियो ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि.स्वाहा ।।५।।


संशय विमोह विभरम तम भंजन दिनन्द समान हो ।

तातैं चरनढिग दीप जोऊँ देहु अविचल ज्ञान हो ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि.स्वाहा ।।६।।


वर अगर तगर कपूर चूर सुगन्ध भूर बनाइया ।

दहि अमर जिह्नाविषैं चरनढिग करम भरम जराइया ।।

श्रेयांसनाथ जिनन्द त्रिभुवन वन्द आनन्दकन्द हैं ।

दुखदंद फंद निकंद पूरनचन्द जोतिअमंद हैं ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि.स्वाहा ।।७।।


सुरलोक अरु नरलोक के फल पक्व मधुर सुहावने ।

ले भगति सहित जजौं चरन शिव परम पावन पावने ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि.स्वाहा ।।८।।


जलमलय तंदुल सुमनचरु अरु दीप धूप फलावली ।

करि अरघ चरचौं चरन जुग प्रभु मोहि तार उतावली ।।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथजिनेंद्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि.स्वाहा ।।९।।


पंच कल्याणक अर्घ्यावली

पुष्पोत्तर तजि आये, विमलाउर जेठकृष्ण छट्टम को ।

सुरनर मंगल गाये, पूजौं मैं नासि कर्म काठनि को ।।

ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णाषष्ठयां गर्भमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।१।।


जनमे फागुनकारी, एकादशि तीन ग्यान दृगधारी ।

इक्ष्वाकु वशंतारी, मैं पूजौं घोर विघ्न दुख टारी ।।

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।२।।


भव तन भोग असारा, लख त्याग्यो धीर शुद्ध तप धारा ।

फागुन वदि इग्यारा, मैं पूजौं पाद अष्ट परकारा ।।

ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्णैकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीश्रेयांसअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।३।।


केवलज्ञान सुजानन, माघ बदी पूर्णतित्थ को देवा ।

चतुरानन भवभानन, वंदौं ध्यावौं करौं सुपद सेवा ।।

ॐ ह्रीं माघकृष्णामावस्यायां केवलज्ञानमंडिताय श्रीश्रेयांसअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।४।।


गिरि समेद तें पायो, शिवथल तिथि पूर्णमासि सावन को ।

कुलिशायुध गुनगायो, मैं पूजौं आप निकट आवन को ।।

ॐ ह्रीं श्रावणशुक्लापूर्णिमायां मोक्षमंगलमंडिताय श्रीश्रेयांसअर्घ्यं नि.स्वाहा ।।५।।


।।जयमाला।।

शोभित तुंग शरीर सुजानो, चाप असी शुभ लक्षण मानो ।

कंचन वर्ण अनूपम सोहे, देखत रुप सुरासुर मोहे ।।१।।


जय जय श्रेयांस जिन गुणगरिष्ठ, तुम पदजुग दायक इष्टमिष्ट ।

जय शिष्ट शिरोमणि जगतपाल, जय भव सरोजगन प्रातःकाल ।।२।।


जय पंच महाव्रत गज सवार, लै त्याग भाव दलबल सु लार ।

जय धीरज को दलपति बनाय, सत्ता छितिमहँ रन को मचाय ।।३।।


धरि रतन तीन तिहुँशक्ति हाथ, दश धरम कवच तपटोप माथ ।

जय शुकलध्यान कर खड़ग धार, ललकारे आठों अरि प्रचार ।।४।।


ता में सबको पति मोह चण्ड, ता को तत छिन करि सहस खण्ड ।

फिर ज्ञान दरस प्रत्यूह हान, निजगुन गढ़ लीनों अचल थान ।।५।।


शुचि ज्ञान दरस सुख वीर्य सार, हुई समवशरण रचना अपार ।

तित भाषे तत्व अनेक धार, जा को सुनि भव्य हिये विचार ।।६।।


निजरुप लाह्यो आनन्दकार, भ्रम दूर करन को अति उदार ।

पुनि नयप्रमान निच्छेप सार, दरसायो करि संशय प्रहार ।।७।।


ता में प्रमान जुगभेद एव, परतच्छ परोछ रजै स्वमेव ।

ता में पतच्छ के भेद दोय, पहिलो है संविवहार सोय ।।८।।


ता के जुग भेद विराजमान, मति श्रुति सोहें सुन्दर महान ।

है परमारथ दुतियो प्रतच्छ, हैं भेद जुगम ता माहिं दच्छ ।।९।।


इक एकदेश इक सर्वदेश, इकदेश उभैविधि सहित वेश ।

वर अवधि सु मनपरजय विचार, है सकलदेश केवल अपार ।।१०।।


चर अचर लखत जुगपत प्रतच्छ, निरद्वन्द रहित परपंच पच्छ ।

पुनि है परोच्छमहँ पंच भेद, समिरति अरु प्रतिभिज्ञान वेद ।।११।।


पुनि तरक और अनुमान मान, आगमजुत पन अब नय बखान ।

नैगम संग्रह व्यौहार गूढ़, ऋजुसूत्र शब्द अरु अमभिरुढ़ ।।१२।।


पुनि एवंभूत सु सप्त एम, नय कहे जिनेसुर गुन जु तेम ।

पुनि दरव क्षेत्र अर काल भाव, निच्छेप चार विधि इमि जनाव ।।१३।।


इनको समस्त भाष्यौ विशेष, जा समुझत भ्रम नहिं रहत लेश ।

निज ज्ञानहेत ये मूलमन्त्र, तुम भाषे श्री जिनवर सु तन्त्र ।।१४।।


इत्यादि तत्त्व उपदेश देय, हनि शेषकरम निरवान लेय ।

गिरवान जजत वसु दरब ईस, ‘वृन्दावन’ नितप्रति नमत शीश ।।१५।।

घत्ताः- श्रेयांस महेशा सुगुन जिनेशा, वज्रधरेशा ध्यावतु हैं ।

हम निशदिन वन्दें पापनिकंदें, ज्यों सहजानंद पावतु हैं ।

ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांसनाथ जिनेंद्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।


दोहाः-

जो पूजें मन लाय श्रेयनाथ पद पद्म को ।

पावें इष्ट अघाय, अनुक्रम सों शिवतिय वरैं ।।

इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)