इह विधि ठाडो होय के, प्रथम पढ़ै जो पाठ ।
धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ ।।
अनंत चतुष्टय के धनी, तुम ही हो सिरताज ।
मुक्ति-वधू के कन्त तुम, तीन भुवन के राज ।।
तिंहु जग की पीड़ा हरन, भवदधि-शोषणहार ।
ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिव सुख के करतार ।।
हरता अघ अंधियार के, करता धर्म प्रकाश ।
थिरता पद दातार हो, धरता निजगुण रास ।।
धर्मामृत उर जल धिसों, ज्ञान भानु तुम रूप ।
तुमरे चरण सरोज को, नावत तिंहु जग भूप।।
मैं बंदौ जिन देव को, कर अति निर्मल भाव।
कर्म बंध के छेदने, और न कछू उपाव।।
भविजन कों भव कूपतैं, तुम ही काढ़न-हार।
दीन दयाल अनाथ पति, आतम गुण भंडार।।
चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्म रज मैल।
सरल करी या जगत में, भविजन को शिव गैल।।
तुम पद पंकज पूजतैं, विघ्न रोग टर जाय।
शत्रु मित्रता को धरै, विष निर-विषता थाय।।
चक्री खगधर इन्द्र पद, मिलैं आपतैं आप।
अनुक्रम कर शिव पद लहैं, नेम सकल हनि पाप।।
तुम बिन में व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन।
जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन।।
पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव।
अंजन से तारे प्रभु, जय जय जय जिन देव।।
थकी नाव भवदधि विषै, तुम प्रभु पार करेय।
खेवटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिन देव।।
राग सहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव।
वीतराग भेटयो अबै, मेटो राग कुटेव।।
कित निगोद कित नारकी, कित तिर्यंच अज्ञान।
आज धन्य मानुष भयो, पायो जिनवर थान।।
तुमको पूजैं सुरपति, अहिपति नरपति देव।
धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव।।
अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार।
मैं डूबत भव सिंधु में, खेओ लगाओ पार।।
इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान।
अपनो विरद निहारिकैं, कीजै आप समान।।
तुमरी नेक सुदृष्टि-तैं, जग उतरत है पार।
हा हा डूबो जात हों, नेक निहार निकार।।
जो मैं कहहूँ और-सों, तो न मिटै उर भार।
मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार।।
बंदों पांचों परम गुरु, सुर गुरु बंदत जास।
विघन हरन मंगल करन, पूरन परम प्रकाश।।
चौबीसों जिनपद नमों, नमों शारदा माय।
शिव-मग साधक साधु नमि, रच्यो पाठ सुखदाय।।