पर्वत वंदना के लिए पहले यात्री रात्रि दो बजे उठकर शौच और स्नान से निवृत्त होकर तीन बजे चल देते थे किन्तु अब कुछ असुरक्षा के भय से यात्रियों को प्रातः ५ बजे से पहले नहीं जाने दिया जाता है । पर्वत यात्रा के लिए सर्दी का मौसम ही उपयुक्त रहता है। ग्रीष्म ऋतु में गर्मी के कारण यात्रा करना कठिन होता है और बरसात में सब जगह हरियाली, जीवों की उत्पत्ति और फिसलन हो जाती है। यात्रा के समय पुरुष लोग नये धोती, बनियान और दुपट्टा धुले हुए धारण करते हैं तथा महिलाएं भी नये धुले वस्त्रों में पहाड़ चढ़ती हैं। वृद्ध और अशक्त पुरुष और महिलाएँ डोली में वंदना कर सकते हैं। अन्य लोग लाठी लेकर चढ़ते हैं। उससे पर्वत पर चढ़ने-उतरने में बड़ी सहायता मिलती है। धर्मशालाओं में इन सब चीजों की व्यवस्था रहती है।
इस तीर्थराज की वंदना के लिए जाते समय न केवल शरीर और वस्त्र आदि की बाह्य शुद्धि ही आवश्यक है, अपितु मन और वाणी की पवित्रता भी आवश्यक है।
धर्मशाला से चलकर लगभग एक फर्लांग से ही पर्वत की चढ़ाई प्रारंभ हो जाती है । यहां से करीब तीन किमी. पर गंधर्व नाला पड़ता है । यहीं पर बीसपंथी कोठी की तरफ से एक धर्मशाला बनी है । लोटते समय यात्रियों के लिए यहां जलपान का प्रबंध है । नाले से कुछ दूर आगे जाने पर एक रास्ता सीता नाले की ओर और दूसरा दशहरा पार्श्वनाथ टोंक की ओर जाता है ।