मधुवन से जब सम्मेदशिखर की यात्रा के लिए रवाना होते हैं, तब मन में एक अद्भुत उल्लास, उमंग और तीर्थंकरों के प्रति निश्छल भक्ति की पुण्य भावना होती है। वहाँ का सारा वातावरण ही भक्तिमय होता है। यात्री के मन में व्यक्त अथवा अव्यक्त रूप में द्यानतरायजी की यह पंक्ति सदा अंकित रहती है- “एक बार वन्दे जो कोई । ताहि नरक - पशुगति नहिं होई ।।“ शास्त्रों में तो शिखरजी की वंदना करने का फल यह बताया है कि वह व्यक्ति फिर संसार में अधिक से अधिक ४६ भव धारण करने के बाद मोक्ष प्राप्त कर लेता है । यह अतिशयोक्ति नहीं, किन्तु सत्य है । इसमें तर्क और संदेह को कोई स्थान नहीं है। इसीलिए तो इसे तीर्थराज की संज्ञा दी गई है। भाव-भक्तिपूर्वक इसकी यात्रा और वंदना करने से कोटि-कोटि जन्मों के संचित कर्मों का नाश हो जाता है।
बीस तीर्थंकरों को इसी पर्वत पर अंतिम योग-निरोध करके निर्वाण प्राप्त हुआ है । इनके अतिरिक्त यहाँ से असंख्य मुनियों को मोक्ष प्राप्त हुआ है। यहाँ से मुक्ति प्राप्त करने वाले मुनियों की निश्चित संख्या शास्त्रों में दी हुई है। कुल कूटों की संख्या २० हैं जो बीस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थान हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस क्षेत्र से असंख्य मुनिजन अनादिकाल से समय-समय पर मुक्त हुए हैं। इसलिए यह क्षेत्र अत्यन्त पवित्र है, उसका कण-कण पवित्र है । यही कारण है कि इस तीर्थ पर सिंह, व्याघ्र, हिरण आदि अनेकों जाति विरोधी और हिंसक प्राणी विचरते देखे गये हैं किन्तु कभी किसी ने एक दूसरे पर आक्रमण किया हो या किसी यात्री के साथ कभी कोई दुर्घटना घटी हो ऐसा कभी सुना नहीं गया। ऐसे अवसर कई बार आये हैं, जब रात्रि में यात्रा के लिए जाने वाले भाइयों से कोई यात्री पिछड़ गया और अकेला पड़ गया और राह में उसे शेर मिल गया। किन्तु न यात्री के मन में भय और न शेर के मन में क्रूरता । शेर एक ओर चला गया और यात्री अपनी राह पर आगे बढ़ गया। यह सब इस तीर्थराज का प्रभाव है। यहाँ के वातावरण में पवित्रता और शुचिता की भावना सदैव बनी हुई रहती है।