हम इस युग में तो बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर महाराज के संघ को दक्षिण भारत से सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र की यात्रा सेठ पूनमचंद घासीलाल- मुम्बई परिवार द्वारा कराने का पुण्यमयी इतिहास तो सुनते ही हैं कि उन पुण्यात्माओं ने यह पुण्यकार्य करके अपरिमित धन-धान्य को तो प्राप्त किया ही था, पुनः उनमें से दो भाइयों ने जैनेश्वरी दीक्षा भी धारण करके मोक्षमार्ग को प्रशस्त किया है, जिन्हें मैंने स्वयं अपनी आँखों से (मोतीलाल जौहरी मुनि श्री सुबुद्धिसागर बने और गेंदनमल जौहरी भी दीक्षित हुए) देखा है । इसी प्रकार पूर्व के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो श्रद्धा से उन चक्रवर्ती सम्राट के प्रति भी मस्तक नत हो जाता है, जिन्होंने करोड़ों वर्ष पूर्व चतुर्विध संघ को बड़े महोत्सव पूर्वक सम्मेदशिखर की यात्रा करवाई। उस समय का वर्णन भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के अनुसार श्री गौतम गणधर स्वामी ने राजा श्रेणिक को बताया, तदनुसार श्री देवदत्त यतिवर ने भी कहा है- उस सगर चक्रवर्ती नामक श्रेष्ठ राजा ने अत्यधिक आदर सत्कार पूर्वक मुनिराजों, आर्यिकाओं, श्रावकों तथा श्राविकाओं के चतुर्विध संघ को साथी बनाकर अर्थात् उन्हें यात्रा के लिए साथ लेकर पहले दिन वह तीन कोस अर्थात् लगभग ६ किमी. चला । चक्रवर्ती की उस तीर्थ यात्रा में चौरासी लाख शुभ लक्षणों वाले हाथी, अठारह करोड़ शुभ लक्षण सम्पन्न एवं वायु के वेग समान दौड़ने वाले घोड़े तथा चौरासी लाख पदाति सैनिकों की टुकड़ियाँ कही गई हैं। चक्रवर्ती के साथ यात्रा करने वाले चक्री के सद्वाक्यों की रक्षा करने वाले विद्याधर भी यात्रा के लिए चले। उस यात्रा में ध्वजाओं एवं नगाड़ों की संख्या एक-एक करोड़ मानी गई है। मार्ग में बाजों की ध्वनि सभी को प्रसन्न करती हुई चलती थी । उस राजा ने अतिशय भक्ति से सम्मेदशिखर पर्वत को ही पूजकर सिद्धवर नामक कूट पर अजितनाथ तीर्थंकर की स्थापना करके और सारे सम्मेदशिखर की तीन बार प्रदक्षिणा देकर जय-जय के घोषों से गूंजता हुआ महोत्सव कराया और वहाँ देवताओं द्वारा किये गये पाँच आश्चर्य हुए जिनको देखकर वहाँ सभी लोग सचमुच आश्चर्यचकित हो गये।