जब आप इस पर्वत की वंदना करते हैं तो पुस्तक में पढ़ते हैं कि एक-एक टोंक की वंदना से इतने इतने करोड़ - लाख आदि उपवासों का फल प्राप्त होता है। इसे कपोलकल्पित या भ्रामक नहीं समझना चाहिए, प्रत्युत् पर्वतराज के कण-कण की पवित्रता का स्पर्श करने से जो परिणामशुद्धि होती है, उसी को उपवासों के प्रमाण में हमारे आचार्यों ने निबद्ध करके सम्मेदशिखर पर्वत वंदना की महिमा बताई है। जैसा कि ग्रंथ में भी लिखा है-
ज्ञानीजन बत्तीस करोड़ सच्चे प्रोषधोपवास का जो फल जानते हैं, वह फल सम्मेदशिखर की यात्रा करने वाला यात्री प्राप्त करे । उसके नरकगति और तिर्यंचगति का नाश होता है इस प्रकार भगवान् महावीर द्वारा कथित जो प्रमाण है, वह तुम सभी के लिए सही हो, ऐसी कवि की कामना है । पुनश्च कहा है-
ईदृक् श्रीजिनराजधर्मकथनं नानाभ्रमध्वंसनम् ।
श्रीसम्मेदगिरिप्रमाणसुफलं श्रीवर्धमानेरितम् ।।
लोहाचार्यवरेण
भूय
उदितं श्रुत्वाखिलाः सज्जनाः ।
सम्मेदं प्रति यान्तु भावसहिताः सर्वार्थसिद्धिप्रदम् ।।
अर्थ -
भगवान् महावीर द्वारा बताया गया, जिनराजों द्वारा बताये धर्म का कथन करने वाला तथा उनके भ्रमों का निवारण करने वाला इस प्रकार जो यह सम्मेदशिखर का प्रामाणिक फल वर्णन मुनिवर्य लोहाचार्य ने पुनः उदित किया है, उसको सभी सज्जनपुरुष भावसहित अर्थात् तीर्थवंदना की सच्ची भावना से परिपूर्ण होकर सर्वार्थसिद्धि प्रदान करने वाले सम्मेदशिखर की ओर जाओ। यहाँ कवि ने सम्मेदाचल की यात्रा हेतु हम सभी सज्जनों को उत्साहित किया है तथा अपने इस वर्णन को ‘लोहाचार्य द्वारा उदित हुआ था - ऐसा कहकर प्रामाणिक बनाया है। इस पर्वत की वंदना केवल भव्यजीव ही करने के अधिकारी होते हैं, अभव्य नहीं ।
वर्धमानोक्तितः पश्चाल्लोहाचार्येरितं च यत् ।
तद्भव्येषु प्रमाणं हि अभव्या नाधिकारिणः ।।
अर्थ -
भगवान् महावीर के उपदेश के उपरान्त कुछ समय पीछे लोहाचार्य द्वारा कहा गया या प्रेरित किया गया, जो सम्मेदशिखर का माहात्म्य है, वह भव्यजनों में प्रमाण ही है तथा अभव्य लोग उसमें अधिकारी नहीं होते हैं। सम्मेदशिखर पर्वत पर जहाँ इस युग के द्वितीय तीर्थंकर भगवान अजितनाथ ने सर्वप्रथम योगनिरोध करके मोक्ष प्राप्त किया, वहीं तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के मोक्षगमन के पश्चात् उस पर्वत से किसी तीर्थंकर ने मोक्ष प्राप्त नहीं किया अर्थात् पार्श्वनाथ भगवान सम्मेदशिखर से मोक्ष जाने वाले तीर्थंकरों में अंतिम तीर्थंकर हैं। उनके मोक्ष जाने के बाद भावसेन नाम के राजा ने उस पर्वत की वंदना करके श्रीप्रसन्नमुख मुनिराज की प्रेरणा से पार्श्वनाथ के स्वर्णभद्रवूहृट पर जिनमंदिर बनवाकर उसमें भगवान पार्श्वनाथ की नीलमणि वाली रत्नप्रतिमा विराजमान की थी, ऐसा वर्णन भी ग्रंथ में आया है।