ये वे क्षेत्र कहलाते हैं जहाँ तीर्थंकरों या किन्हीं दिगम्बर तपस्वी मुनिराज का निर्वाण हुआ हो । शास्त्रों का उपदेश, व्रत, चारित्र, तप आदि सभी कुछ निर्वाण प्राप्ति के लिए है। यही परम पुरुषार्थ है । जिस स्थान पर निर्वाण होता है, उस स्थान पर इन्द्रदेव पूजा को आते हैं तथा चरण - चिन्ह स्थापित कर देते हैं। तीर्थंकरों के निर्वाणक्षेत्र कुल पाँच हैं- कैलाशपर्वत, चम्पापुरी, पावापुरी, ऊर्जयन्त और सम्मेदशिखर । कैलाश पर्वत से भगवान ऋषभदेव, चम्पापुरी से श्री वासुपूज्य स्वामी, गिरनार से नेमिनाथ स्वामी, पावापुरी से महावीर स्वामी ने कर्मों को नाश कर शाश्वत सुख को प्राप्त किया। सम्मेदशिखर से २० तीर्थंकरों ने कठोर आत्म-साधना कर कर्मों को नाश कर अविनाशी सुख को प्राप्त किया ।
निश्चितरूप से सम्मेदशिखर गौरवमय भूमि है। इस भूमि की विशेषता है, व्यक्ति जैसे ही शिखर की प्रथम सीढ़ी पर एक कदम रखता है, आगे ही बढ़ता चला जाता है। हृदय आनन्द से इस तरह सराबोर हो जाता है कि आगे आने वाली थकावट उसे महसूस नहीं होती है। हमारा हृदय तब कितना प्रसन्न होता है, जब हम सम्मेदशिखर पर्वत के पावन शिखरों पर पहुँचते हैं। आँधी-तूफान, झंझावात, वर्षां, तेज हवाएँ सबकुछ चलती हैं, कभी-कभी तो ऐसा लगता है। कि पूरा शिखर ही हिल रहा है, तब भी निर्वाण की वे ज्योतियाँ अकम्प दिखाई देती हैं। इस पवित्र तीर्थधाम की यात्रा करना हमारा अहोभाग्य है। यही तो वह पर्वत है, जिसके कण-कण में सिद्धत्व की आभा है। असंख्य वर्षों से मानव ही नहीं वरन् देवों ने भी इसकी पूजन-अर्चन कर जीवन को पवित्र किया है। यहाँ का वंकर-वंकर सिद्ध आत्मा के चरण कमलों के स्पर्श से पवित्र है। यात्रा के समय हृदय में जो हर्षोल्लास, प्रपुल्लता और सहज आनन्द की उपलब्धि होती है वह अन्यत्र दुर्लभ है। इस पावन तीर्थ की यात्रा, वंदना, दर्शन, संकटहारी, पुण्यकारी और पापनाशिनी है।
भारत का अतीत गौरवमय रहा है। विश्व के अनन्त प्राणी जब अज्ञान के अंधेरे में रास्ते टोह रहे थे, तब इस देश के अनेकों महापुरुष, तीर्थंकर, आचार्य एवं मुनि गहन चिन्तन की अतुल गहराइयों में पहुँचकर सिद्धत्व को प्राप्त कर रहे थे, इसीलिए सम्मेदशिखर जैनों का सबसे पवित्र, बड़ा एवं सबसे ऊँचा तीर्थ माना जाता है। वर्तमान में सम्मेदशिखर पर्वत की ऊँचाई ४५७६ फूट है। इसका क्षेत्रफल (विस्तार) २५ वर्ग मी. में है । साधारण दिगम्बर जैन यात्रीगण रात्रि को १–२ बजे स्नान कर शुद्ध धुले वस्त्र पहनकर गिरिराज की वंदना को जाते है ।
दिगम्बर जैन बीसपंथी कोठी से २ फर्लांग की दूरी पर क्षेत्रपाल महाराज की गुमटी है। यहाँ से ढाई मील की दूरी पर गन्धर्व नाला आता है। जहाँ यात्रीगण विश्राम तथा यात्रा से वापसी में जलपान किया करते हैं। यहाँ से १ मी. की दूरी पर सीता नाला बहता है। सीता नाला पर यात्री बंधुओं के लिए शुद्ध जल से पूजन-सामग्री धोने का जल बहता रहता है। इस नाले के पार से १ मील दूर चोपड़ा कुण्ड है, जहाँ दिगम्बर जैन मंदिर, वहाँ भगवान पार्श्वनाथ तथा भगवान चन्द्रप्रभ तथा बाहुबली स्वामी की मूर्ति स्थापित है । यहाँ से आधा किलोमीटर की दूरी पर देवाधिदेव कुंथुनाथ स्वामी तथा गौतम गणधर महाराज की टोंक शुरू होती है। इस पर्वत की वंदना करते समय यात्री जूते, चप्पल, ऊनी वस्त्र, चमड़े की बनी वस्तुओं का उपयोग न करें, क्योंकि यह पाप बंध का कारण है ।