(तर्ज-दिन-रात मेरे...)
शत-शत प्रणाम करते, आशिष हमको देना ।
दोषों को दूर करके, अपराध क्षम्य करना ॥१॥
मन से, वचन से, तन से, अपराध पाप करतें ।
कृत करितानुमत से, दुःख शोक क्लेश सहते ॥२॥
तवारों कषाय करके, निज रूप को भुलाया ।
आलस्य भाव करके, बहु जीव को सताया ॥३॥
मोजनशयन गमन में, पापों का बंध बाँधा ।
अज्ञान भाव द्वारा, अज्ञात पाप बाँधा ।।४।।
दिन-रात और क्षण-क्षण अपराध हो रहे हैं ।
इस बोझ से दबे हम, पापों को ढो रहे हैं ।।५।।
गुरुदेव की शरण में, प्रायश्चित लेने आए ।
मुक्ति का राज पाने, भव रोग को नशाए ।।६।।