आत्म कीर्तन

हूँ स्वतन्त्र निश्चल निष्काम, ज्ञाता द्रष्टा आतमराम।


मैं वह हूँ जो है भगवान, जो मैं हूँ वह है भगवान।

अन्तर यही ऊपरी जान, वे विराग यह राग-वितान॥ १॥


मम स्वरूप है सिद्ध समान, अमित शक्ति-सुख-ज्ञान-निधान।

किन्तु आशवश खोया ज्ञान, बना भिखारी निपट अजान॥२ ॥


-दुख-दाता कोई न आन, मोह-राग-रुष दुख |

निज को निज, पर को पर जान, फिर दुख का नहिं लेश निदान॥३॥


जिन, शिव, ईश्वर, ब्रह्मा, राम, विष्णु, बुद्ध, हरि जिनके नाम।

राग त्यागि पहुँचूँ शिव धाम, आकुलता का फिर क्या काम॥४॥


होता स्वयं जगत-परिणाम, मैं जग का करता क्या काम ।

दूर हटो पर-कृत परिणाम, ‘सहजानन्द’ रहूँ अभिराम॥ ५॥