श्री सिद्ध चक्र का पाठ, करो दिन आठ ।
ठाठ से प्रानी, फल पायो मैना रानी ।।
मैना सुंदरी एक नारी थी, कौड़ी पति लाख दुखियारी थी ।
नहीं पड़े चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी।।
जो पति का कुष्ठ मिटाउंगी, तो उभयलोक सुख पाउंगी ।
नहीं अजा गल स्तन वत्त, निष्फल जिंदगानी ।।
एक दिन गयी जिं मंदिर में, दर्शन कर अति हरषी उर में ।
फिर लाखे साधू निर्ग्रन्थ दिगंबर ज्ञानी ।।
बैठी कर मुनि को नमस्कार, निज निंदा करती बार बार ,
भर अश्रु नयन कही मुनि सों, दुखद कहानी ।।
बोले मुनि पुत्री! धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो ।
नहीं रहे कुष्ठ की तन में नाम निशानी ।।
सुन साधू वचन हरषी मैना, नहीं होय झूठ मुनि की बैना ।
करके श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी।।
जब पर्व अढाई आया था, उत्सव युक्त पाठ कराया था ।
सब के तन छिड़का यन्त्र न्वहन का पानी ।।
गंधोदक छिड़क वसु दिन में, नहीं रहा कुष्ठ किंचित तन में ।
भई सात शतक की काय स्वर्ण समानी ।।
भाव भोग भोगी योगीश भये, श्रीपाल कर्म हनी मोक्ष गए ।
दूजे भव मैना पावें शिव रजधानी ।।
जो पाठ करे मन वच तन से, वे छुट जाए भव बंधन से।
मक्खन मत करो विकल्प कहे जिनवाणी ।।
श्री सिद्ध चक्र का पाठ, करो दिन आठ ।
ठाठ से प्रानी, फल पायो मैना रानी ।।