शिखरजी पर शिकार वर्जित

                जैन समाज की अहिंसक भावना के कारण सरकार की ओर से इस पर्वत पर किसी प्रकार का शिकार करना वर्जित कर दिया गया है और उसकी सूचना एक शिलापट्ट पर लगा दी गई है। जैन लोग इस तीर्थ की पवित्रता को अक्षुण्ण रखने का पूर्ण प्रयत्न करते रहे हैं।

                सन् १८५६ से १८६२ तक इस पहाड़ पर ब्रिटिश सेनाओं के लिए एक सैनीटोरियम बनाने के लिए सरकार की ओर से जाँच होती रही थी। किन्तु सैनिकों के रहने से यहाँ मांस पकाया जायेगा, इस आशंका से जैन समाज ने जबरदस्त विरोध किया और वह विचार छोड़ दिया गया ।

                शिखरजी का पहाड़ कई पीढ़ियों से पालगंज के जमींदार के अधिकार मे चला आ रहा था । उक्त घराने के सभी लोग दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे । यहाँ तक कि दर्शन-पूजा के लिए उन्होंने अपने यहाँ दिगम्बर जैन मंदिर भी बनवाया था जो अभी भी पालगंज में विद्यमान है। उसकी प्रतिष्ठा श्री १०५ धर्मदास जी द्वारा वि.सं. १६३६ में हुई थी। वे शिखरजी की रक्षा भी धर्मपूर्वक किया करते थे। लेकिन दुर्भाग्यवश कर्मचारियों की अयोग्यता से जमींदार कर्जदार हो गये। उस अवसर पर दिगम्बर समाज की ओर से उन्हें बतौर कर्ता हजारों रुपये दिये गये। फिर भी उनकी स्टेट इनकमवर्ड हो गई। उस समय इस इलाके के डिप्टी कमिश्नर मि. केणी थे। उन्होंने शिखरजी की पहाड़ की मनोरमता और स्काटलैण्ड की पहाड़ियों-जैसी प्राकृतिक सुषमा देखकर ही उस समय अंग्रेजों के लिए एक सैनीटोरियम बनाने का विचार किया था। बाद में विरोध होने पर वह विचार स्थगित कर दिया गया था ।